SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला भरत का भारत:- २६७ पृष्ठों की इस पुस्तक को यदि जैन भूगोल की एटलस कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा उस चक्रवर्ती राजा भरत की दिग्विजय के सन्दर्भ में सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत करने वाली यह पुस्तक जैन भूगोल के विद्यार्थियों के लिए संग्रहणीय है। लेखिका ने स्वयं इस पुस्तक-रचना के आशय को निम्न शब्दों में प्रकट किया है "कोई भी चक्रवर्ती चक्र रत्न को प्राप्त कर जब दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते हैं तब किस क्रम से भरत क्षेत्र की छः खण्ड भूमि जीतते हैं तिलोयपण्णत्ति नाम के महान् करणानुयोग ग्रन्थ में इसका बहुत ही अच्छा वर्णन है। इस "भरत का भारत" पुस्तक में आप इसी क्रम को देखेंगे।" (पृ०.७) भौगोलिक पुस्तक होने के नाते लेखिका को इस पुस्तक में भारत की मनोहारी प्रकृति के चित्रण का सुन्दर अवसर प्राप्त हुआ है। उसका वैरागी मन भी प्रकृति नटी की माया में उलझ गया है। आलंकारिक शैली में किये गये प्रकृति-चित्रण की एक झाँकी देखिए "उस वन की वायु इलायची की सुगन्ध से मिश्रित, तालाब के जलकणों से शीतल और सौम्य होकर बहती हुई, चक्रवर्ती की मानो सेवा ही कर रही थी। वायु से हिलती हुई शाखाओं के अग्र भाग से फलों की अंजलि बिखेरता वह वन मानो चक्रवर्ती की अगवानी ही कर रहा हो।" विवेच्य पुस्तक मानो ज्ञान का खजाना है। कहीं श्रावकाध्याय संग्रह के आधार पर गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रियाओं के विभिन्न भेदों का विस्तृत वर्णन है तो कहीं ऋद्धियों और सिद्धियों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। कहीं चक्रवर्ती की नवनिधि और १४ रत्नों का उल्लेख है तो कहीं भरत चक्रवर्ती द्वारा देखे गये सोलह स्वप्रों की व्याख्या की गई है। भरत और बाहुबली के विग्रह का मर्मस्पर्शी वर्णन भी पुस्तक का प्रमुख आकर्षण है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की रचना इसी पुस्तक का जीवंत संस्करण है। इस सम्पूर्ण कथा-साहित्य के अध्ययन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आर्यिकाजी के कथा-साहित्य की कसौटी कल्पना या भावुकता नहीं, अपितु खरी अनुभूति है । लेखिका ने अत्यधिक परिश्रम एवं एकाग्र मनोयोग से जैन पुराणों का अध्ययन किया है। तत्पश्चात् विशालपुराण-साहित्य के आदर्श महापुरुषों एवं सतियों के अनुकरणीय चरित्रों को सरल, सुबोध एवं हृदयग्राही तथा तथात्मक शैली में चित्रित किया है। कथासाहित्य के तथ्यों की कसौटी पर भी ये सभी पुस्तकें खरी उतरती हैं। सुसंगठित कथानक, मर्मस्पर्शी चरित्र-चित्रण, भावानुकूल संक्षिप्त सारगर्भित संवाद, कथानक के अनुरूप देश काल का स्वाभाविक चित्रण, विषयानुकूल सुबोध भाषा, रोचक शैली एवं लोकहित का पावन उद्देश्य-इन सभी विशेषताओं ने लेखिका की सम्पूर्ण कथा-सृष्टि को जैन साहित्य की बहुमूल्य धरोहर बना दिया है। इस समग्र कथा-साहित्य के सृजन में लेखिका का प्रमुख उद्देश्य आधुनिक युवा पीढ़ी को जैन धर्म के दार्शनिक एवं व्यवहारिक ज्ञान से परिचित कराना रहा है। विज्ञान की चकाचौंध में फंसी आधुनिक युवा पीढ़ी को धर्म की व्याख्या कुनैन की तरह कड़वी प्रतीत होती है। लेखिका ने बड़े चातुर्य से इस कुनैन को कथा की शर्करा में आंवृत्त परोसा है। “हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः" हितकारी और मनोहारी वचन दुर्लभ होते हैं। ___संस्कृत की यह सूक्ति आर्यिकाजी के कथा-साहित्य की सटीक व्याख्या है। इस कथा-साहित्य में मनोरंजन और उपदेश दोनों का मणिकांचन सहयोग दृष्टिगत होता है। लेखिका ने अपने भावित और अनुभूत सत्य की परिधि न लांघी और न अर्द्धपरीक्षित या अपरीक्षित सिद्धान्त ही बटोर कर एकत्रित किये हैं, किन्तु अनेक मनीषियों, तपस्वियों और आचार्यों द्वारा निगदित तथ्यों को "नद्या नव घटे नीर" के समान रखा है। जैन पराणों के विशाल चित्र फलक पर कल्पना की तूलिका से आर्यिकाजी द्वारा उकेरे गये ये कथा-चित्र अमिट हैं, शाश्वत हैं, इन्हें समय की धूल मलिन नहीं कर सकेगी। ____इन शब्दों के साथ मैं महिला रत्न पूज्या गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी का अभिनन्दन करती हूं। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि आपकी कल्याणकारिणी लेखनी सुदीर्घ काल तक ज्ञान गंगा प्रवाहित करती रहे जिसमें निमजन कर मानव जाति अपने क्लेश कर्म का क्षय और गुणों का विकास कर सके। विश्व में आपकी ज्ञानधारा सर्वत्र व्याप्त हो और आप दीर्घायु होकर जैन-साहित्य की श्री वृद्धि करती रहें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy