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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८५ उपरान्त ससुराल में संकोचवश अपनी प्रतिज्ञा का उद्घाटन न करने के कारण, वह ३ दिन का उपवास करती है। चौथे दिन गजमोतियों से प्रभु की पूजा करके ही अन्न-जल ग्रहण करती है। तदनन्तर अपने पति के देश निर्वासन के परिणामस्वरूप नंगे पैर जंगलों में भटकती हुई, जिनदर्शन के अभाव में ७ दिन का व्रत रखती है। इस दृढ़-प्रतिज्ञ नारी की तपस्या से स्वर्ग में देवताओं का आसन कम्पित होता है और वे सघन वन में जिन मंदिर का निर्माण कर गजमुक्ताओं की व्यवस्था करते हैं। इसी प्रतिज्ञा-निर्वाह के पुण्यफल से भविष्य में मनोवती के पति उन्नति के शिखर पर आरुढ़ होते हैं। इस पौराणिक कथा के माध्यम से लेखिका का उद्देश्य जनमानस में प्रतिज्ञा-पालन और देव-दर्शन के महात्म्य का प्रतिपादन करना है। लेखिका के ही शब्दों में "बिना नियम के यह मनुष्य जीवन व्यर्थ है इसलिए कुछ न कुछ नियम अवश्य लेना चाहिए।" "हमें दृढ़ श्रद्धानपूर्वक जिनदर्शन की प्रतिज्ञा लेकर अपना संसार स्वल्प कर लेना ही चाहिए।" "यह जिनदर्शन ही तो एक दिन अपनी आत्मा का दर्शन कराकर अपने अंदर ही परमानंदमय परमात्मा को प्रकट कराने वाला है।" (पृष्ठ १२८) भगवान वृषभदेवः- ६७ पृष्ठों की इस लघु पुस्तक में युग प्रवर्तक, विधिवेत्ता, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव के जीवन और पूर्वभवों की रोचक एवं शिक्षाप्रद कथा है। इस उपन्यास की रचना संवादशैली में हुई है। संतोष कुमार मुनिराज की वंदना कर उनसे अनेक प्रश्न पूछता है, उत्तर में मुनिराज भगवान वृषभदेव के पूर्वजन्मों और वर्तमान जीवन का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करते हैं। आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण रूपी महासागर के मंथनस्वरूप लेखिका ने जिस अमृत तत्त्व को प्राप्त किया है उसे इस सारगर्भित उपन्यास में रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक की उल्लेखनीय उपलब्धि कतिपय प्रचलित भ्रान्तियों का निराकरण एवं भगवान वृषभदेव के कर्मभूमि के प्रवर्तन में महान् योगदान का सही मूल्यांकन है। लेखिका ने वैज्ञानिक ढंग से लोक में प्रचलित भगवान के दशावतारों की व्याख्या की है। अन्य धार्मिक मतों में विष्णु के दश अवतार माने गये हैं। आचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव के दश पूर्व भवनों को उनके दश अवतार बताकर उन्हें विष्णु सिद्ध किया है। लेखिका ने इसी मत का समर्थन किया है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के सम्बन्ध में प्रचलित लोकधारणा का खण्डन करते हुए लेखिका ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है “अन्य मतावलम्बी ईश्वर को सारे जगत् की सृष्टि रचना का कर्ता-बनाने वाला मानते हैं, किन्तु यह बात सर्वथा अघटित है। जैन सिद्धान्त में तो मात्र वृषभदेव को कर्मभूमि के प्रारम्भ में आजीविका के साधन का उपदेशक और विदेह क्षेत्रवत् वर्ण व्यवस्था का व्यवस्थापक माना गया है, किन्तु सृष्टि का कर्ता सृष्टा नहीं।" (पृष्ठ ३८) उपन्यास के अन्त में आदिब्रह्मा वृषभदेव के जीवन के घटनाक्रमों से सम्बन्धित तथ्यों एवं तिथियों की तालिका उनके सम्पूर्ण चरित्र के महासागर को गागर में समेटने का प्रशंसनीय प्रयास है। जीवनदान:- जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से स्पष्ट है-"जीवनदान देने से बढ़कर और कोई दान व पुण्य इस विश्व में नहीं है।" इस शाश्वत् सत्य का उद्घाटन ही इस कृति का प्रमुख उद्देश्य है। मृगसेन धींवर के जीवन वृत्तांत के माध्यम से इस सत्य को रोचक शैली में अभिव्यक्त किया गया है। ____ "अहिंसा व्रत का माहात्म्य देखो, मृगसेन धींवर ने पाँच बार जाल में आई हुए एक मछली को जीवनदान दिया था। उसी के पुण्य प्रभाव से उसे पाँच बार मृत्युकारी आपत्तियों से स्वयं जीवनदान मिला है।" (पृ. ३४) जीवरक्षा जैसे पुण्य कार्यों को करने की प्रेरणा देती हुई लेखिका कहती हैं "पूर्व पुण्य से जीवों के लिए कालअग्नि भी जल हो जाती है, समुद्र भी स्थल बन जाता है, शत्रु भी मित्र के समान व्यवहार करने लगता है। हलाहल विष भी अमृत बन जाता है इसीलिए भाई! हमेशा पुण्य का संचय करना चाहिए।" ___ (पृ० ३५) उपकारः- वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के इस ४४वें पुष्प में महापुरुष कुमार जीवंधर के परोपकारमय जीवन पर प्रकाश डाला गया है। जीवंधर चम्पू, छत्रचूड़ामणि आदि जितने भी उनके जीवन से सम्बन्धित पुराण ग्रन्थ हैं उनके आधार पर इस पुस्तक की रचना हुई है। कुमार जीवंधर का जीवन “परोपकाराय सतां विभूतयः" का प्रत्यक्ष उदाहरण है। बचपन में ही उन्होंने एक कुत्ते जैसे पामर प्राणी को महामन्त्र णमोकार सुनाकर उसका जो उपकार किया, वह कुत्ता उस उपकार को जन्म-जन्मांतर तक विस्मृत नहीं कर सका और अवसर प्राप्त होने पर उन उपकारों का बदला चुकाता रहा। कहा भी गया है "न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति"। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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