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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [८१ प्राणिमात्र के हित में संलग्न विदुषी - नाथूराम जैन डोंगरीय, इन्दौर [म०प्र०] यह देश और समाज का परम सौभाग्य है कि इस युग में अहर्निश प्राणिमात्र के हित एवं धर्म प्रभावना में संलग्न विदुषीरत्न गणिनी आर्यिका माता श्री ज्ञानमती जैसी कर्मठ साध्वी का वरद सानिध्य एवं शुभाशीर्वाद प्राप्त है। उन्होंने आदर्शरूप में बाल ब्रह्मचारिणी रहकर अपने त्याग और तपस्यामय जीवन में ज्ञानार्जन करते हुए जो विपुल साहित्य सृजन कर जिनवाणी की सेवा की है तथा धर्मनिष्ठा व कर्त्तव्यपरायणता का बहुआयामी परिचय दिया है वह सचमुच अभिनंदनीय है। __ अनेक मौलिक ग्रंथों की रचनाएँ, आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के गद्य-पद्य में किये गये अनुवाद, पूजन विधानों की अनेक छंदों में की गई संरचनाएँ, अष्टसहस्री जैसे उच्चतम न्याय ग्रंथ का मातृभाषा में रूपांतर आदि साहित्यिक कृतियाँ माताजी की ज्ञान गरिमा एवं निसर्गज कवित्व शक्ति को उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं। जम्बूद्वीप और उसमें विशालकाय उत्तुंग मेरु की रचना कराकर देश-विदेश के सभी जनों को एक दर्शनीय स्थल के रूप में माताजी ने एक सचमुच ही अनूठा कार्य किया है, जो जैन धर्म और समाज को चिरकाल तक गौरवान्वित करता रहेगा। सच तो यह है कि पृ० माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की कोई तुलना नहीं है, जो वर्तमान में की जा सके। वे आदर्श गणिनी एवं दिगंबर जैन साध्वी हैं, जिनसे जैन एवं समस्त महिला समाज गौरवान्वित है। उनकी वंदना करते हुए यही कामना करता हूँ कि वे आत्म-कल्याण के साथ ही धर्म समाज एवं जिनवाणी के उत्थान हेतु चिरकाल तक संलग्न रहकर समाज को मार्गदर्शन देती रहें। "ज्ञान गंगा पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी" -पं० यतीन्द्र कुमार वैद्य, लखनादौन "ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण' कहकर आचार्यों ने ज्ञान की महिमा गाई है, परन्तु कौन-सा ज्ञान इसका निर्णय करते हुए कहा है आत्म ज्ञान ही ज्ञान है, और ज्ञान अज्ञान । सुख शांति का मूल है, वीतराग विज्ञान ।। अर्थात् वीतरागता के साथ आत्मा का ज्ञान ही सुख-शान्ति और कल्याण का आधार है। निर्मल आत्म श्रद्धापूर्ण आत्मज्ञान तथा वीतरागतापूर्ण सम्यक् आचरण जिसे रत्नत्रय धर्म कहते हैं, उसकी अधिष्ठात्री श्री १०५ ज्ञानमती माताजी को श्रमण संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन एवं समाज की जागृति के लिए किये गये प्रभावना के वृहत् अभिनन्दनीय कार्यों के उपलक्ष्य में कृतज्ञता ज्ञापन का सत्कृत्य अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण का आयोजन हो रहा है। बहुत हर्ष का समय है। आज समाज में पुरुष तथा महिला समाज में अनेक साधक हैं, जो अपनी-अपनी क्षमता से स्व-पर साधना में रत हैं। उन्हीं में से महिला साधकों में पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। विद्वान् पू० माताजी ज्ञानमती को ज्ञान की गंगा मानकर सम्मान प्रदान करते हैं। यह सच है कि उनके ज्ञान का क्षयोपशम असीमित है। भारतीय संस्कृति के वैदिक तथा श्रमण पक्षों ने माता जाति को बराबर सम्मान प्रदान किया है। भगवान् महावीर के समोशरण में भी नारी साधकों की संख्या ज्यादा थी। आज भी प्रत्येक धार्मिक कार्यक्रमों में माताएँ प्रमुखता से सहयोग प्रदान कर रही हैं। उनके बिना सब वातावरण अधूरा रह जाता है। सन्तों ने माता जाति, जिसे शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माना है, उनके गुणों के गीत गाये हैं। माता के सम देव जगत में और न कोई। मातृभूमि सम और जगत में कहीं न कोई ॥ मातृभूमि है प्राण, प्राण माता है प्यारी । प्राणहीन हम हुए अगर ये गई विसारी ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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