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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२३ [२६] उसके कामताप्रसाद और पं० जमुनालालजी शास्त्री उस समय के ज्ञानी गुरु थे। उनके चरण युगल में रहकर मैना अपने हित, स्व-पर भेद-विज्ञान-भाव को समझती है और सदैव आत्म स्वरूप का चिन्तन करती रहती है। [२७] अल्प अवस्था में ही प्रखर, ज्ञान स्वरूप को जानने वाली साक्षात् सरस्वती के घर में प्रतिमूर्ति मैना को वे शास्त्री महोदय अति प्रशंसनीय मानते हैं, जो मैना तत्त्वज्ञान करने में भी प्रवीण है। [२८] जब वह बालिका आठ वर्ष की होती है तब वह मिथ्यात्व मान्यताओं के खण्डन में प्रवृत्त हो जाती है। वह मैना सदा ही मन से चिंतनशीला रूप से शील-स्वभावी शास्त्र में कथित तत्त्वों के वचन में सदैव ध्यान लगाती है। [२९ ] शील से भूषित व्रत को और व्रत को विद्याबंत बनाती है, विद्या में रमण करती हुई मैना गुणों की/आत्म गुणों की महानता को प्राप्त हो जाती है। जैसे लोक में मणि प्रशंसनीय होती है, उसी तरह महनीय विद्या भी सुन्दर श्रेष्ठ है, कल्याण प्रदान करने वाली है, प्रभावक एवं गुण युक्त विद्या है। [३०] यदि वह गुणयुक्त विद्या विनय तथा यश से युक्त होती है तो उस विद्या को प्राप्त कर लोग प्रशंसनीय होते हैं। यदि उस विद्या को नारी धारण करती है, तो वह सम्यक् गुण को धारण करनेवाली प्रभावशील होती है। इसलिए समभाव युक्त विद्या को धारण करने वाली मैना किस किस स्वरूप को प्राप्त नहीं होती है अर्थात् कई प्रकार के रूपों को प्राप्त होती है। [३१] सूर्य के तेज से पृथिवी और कमलरासी जैसे विकास को प्राप्त होती है। वैसे ही रात्रि में चन्द्रमा की किरणें (चांदनी) आकाश की शोभा बढ़ाती हैं। पुत्र को छोड़कर जननी शोभा को प्राप्त नहीं है, लोक में प्रचलित यह प्रसिद्ध सूक्ति ठीक नहीं है (क्योंकि पुत्री से भी मां का गौरव बढ़ता है) [३२] शुभ लक्षण वाली पुत्री भी अपने परिवार का भूषण है। क्या चन्दना जैसी महासति ने कुल के भूषण को प्राप्त नहीं किया? क्या ब्राह्मी, सुन्दरी और सुलोचना कुल की भूषण नहीं थीं। मानव जन इतिहास के शास्त्रों से इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। [३३] पुत्री तो राजीमति (राजुल) भी है, जो आत्मा के प्रकाश हेतु निर्जन वन की ओर चल पड़ती है और अपने आत्मा के ध्यान में रत हो जाती है। अन्य कई सतियाँ, महासतियाँ श्रमण मार्ग पर चलनेवाली हैं, इस संसार में सभी क्या यह नहीं जानते हैं? [३४] मैना मन से गृह कर्म में और गृहस्थ धर्म में लीन नहीं होती है और न ही संसार के असार कर्मों में उसकी प्रवृत्ति होती है। वह तो सदैव आत्म-गुण का, एवं शास्त्र प्रणीत पुराण कर्म का तथा मिथ्यात्व मान्यता के पोषक शास्त्र के विपरीत कर्म के खण्डन हेतु ध्यान करती है। [३५] सभी लोग, माता, दादी एवं भाई आदि उसके हास-परिहास प्रकृति से मुक्त एवं समत्व की ओर उन्मुख तथा ध्यान युक्त उस बालिका को देखकर नाना प्रकार के विकल्पों से युक्त मनुष्य हो जाते हैं। [३६] मैना की कीर्ति परिवार के समस्त भाग में, प्रान्तों में, नगरों में एवं राज्यों में फैल जाती है। मानों स्वाद युक्त सुन्दर फल एवं सुमनों की सुगनध क्रीडावन/उपवन से सम्पूर्ण भाग एवं जन जन में फैल जाती है। [३७ ] वह निर्मल स्वभाव वाली मैना मुनि चरणों में एवं ब्रह्मचर्य को धारण करने में प्रवृत्त हो जाती है। तत्त्व के समग्र स्वरूप का आलोडन के लिए शास्त्र के गुण एवं आगम के सार का ध्यान करती है। तथा संसार सागर से पार होने के लिए मुनिमार्ग के धर्म में मन लगाती है। [३८] वह धर्मशीला समस्त संत दर्शन से आर्यिका पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए अपने आप में आर्यिका भाव को उत्पन्न करती है। देश के भूषण, उपदेश की शोभा को प्राप्त, राष्ट्र संत आ० देशभूषण के चरणों में अपनी आत्म-श्रद्धा को प्रगट करती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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