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ध्यान से युक्त, मन से सोम्य, समत्व को धारण करने वाली वह मैना रात्रि में एक स्वप्न को देखती है कि मैं स्वयं श्वेत वस्त्र को धारण कर पूर्ण चन्द्रमा की किरणों के साथ जिनेन्द्र की भक्ति को निरन्तर कर रही हूँ ।
आनन्द के गुण से पूर्ण स्वभाव से शान्त वह मैना अपने भाई मानों वह संसार के पाप-पुण्य का ही नाश करना चाहती है।
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
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कैलाशचन्द के सामने रात्रि में देखे गए सम्पूर्ण श्रेयस्कर स्वप्न का कथन करती है।
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मैना का प्रथम सम्यक् चरण ब्रह्म में रत होता है। उस ब्रह्मचर्य व्रत को वह जीवन पर्यन्त धारण करती हैं। मुनिपथ पर प्रवृत्त समत्व धर्म की ओर बढ़ती है। उन व्रतों के कारण वह सोम्य होती है।
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वह आचार्य के चरणों की शरण में चैत्र कृष्ण की एकम के शुभ दिन में क्षुल्लिका के पद को प्राप्त करती है न केवल वह मनन- चिन्तन के भाव से युक्त होती है, अपितु वह सदैव शास्त्र के सार के अन्वेषण में विचरण करती/ तल्लीन होती है।
उसका वीरमति नाम ज्ञान में अत्यधिक वीर होने पर रखा गया। रखत हुए ब्रह्म / आत्म स्वरूप में एवं सिद्धान्त रूपी सागर के रस
से
यह आचार्य देशभूषण की शिष्या सम्यक् ध्यान में एवं पूर्ण रूप का अध्ययन करती है और निरन्तर ही अपने संघ में शास्त्रों का
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वह ब्रह्ममती के संघ में क्षुल्लिका होकर ध्यान एवं अध्ययन के क्रम को जारी में अच्छी तरह निमग्न होती है।
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जिनमार्ग के स्थान में स्थित होती है आगम, पुराण कथा एवं महाकाव्यों आदि अभ्यास कराती है।'
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जो निर्दोष मार्ग में गमन प्रयत्नशील है, अन्य को भी निःपृह स्वभाव से युक्त करता है, वह स्वयं और दूसरों के लिए धर्म रूपी श्रेष्ठमार्ग का यान है, जो पार ले जाता है। वही ज्ञान, दर्शन और चारित्र का धारक हमारा गुरु है ।
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मूलोत्तर गुण से युक्त, बावीस परिषहों को सहन करने वाले समस्त निर्मन्य साधु हितकारक है वे इस भूमिभाग पर सिंह के समान विचरण करते हैं। वे साधु सम्यक् पथ को प्रदान करने वाले समुद्र की तरह भी है।
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जो ज्ञान, दर्शन प्रधान चारित्र के स्वामी हैं, चारित्र से शुद्ध, रत्नत्रय से पवित्र साधु हैं। आगम प्रणीत तत्त्वधर्म से युक्त सम्यक् पथ के गामी हैं। वे आराधना के समय मुझे शान्ति प्रदान करते हैं।
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शत्रु और मित्र के प्रति समभाव, सशान्ति और शील को धारण वाले, निन्दा करने वालों के प्रति नम्र गुण से युक्त, अपने में समत्व को धारण करने वाले, सुख-दुःख, जीवन-मरण, तृण-रत्न, धन-धान्य आदि में समभाव देखने वाले गुरुओं के प्रति श्रद्धा है। [ ४९ ]
लोक में सिंह की तरह कठोर श्रमणधर्म को पालने वाले, आकाश में दीप्ति युक्त सूर्य की तरह चमकने वाले, सागर के समान गंभीर और धैर्य को धारण करने वाले तथा चंद्र किरणों की शीतलता से सोम्यभाव को धारण करने वाले मुनीश्वरों के प्रति श्रद्धा है।
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विद्या के सागर से पारगामी, उदारवृत्ति वाले पाप रूपी विष से मुक्त ध्यान के समरन्त मार्ग वाले स्वयं लोक में तीर्थ, सम्यक् उपदेश और चारित्र की पवित्रता के कारण श्रेष्ठ वे साधु हमारे सम्यक् गुणों के नायक हैं।
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श्रमणधर्म में रत, शान्त स्वभाव को धारण करने वाली, श्रेष्ठ बुद्धिवाली वह वीरमति शान्ति के सागर शान्तिसागर के पथ पर चलने वाली है, वह महावीर पथ का सदैव चिन्तन करती है।
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वह वीर-वीरा / वीर पथ पर चलने वाली एक गाँव से दूसरे गाँव में विचरण करती हुई निर्विघ्न पूर्वक ज्ञान-विज्ञान के पथ का वीरता पूर्वक ज्ञान से वीर बनाने का प्रयत्न करती है, वीर से वीर, अतिवीर करती हुई वह वीरा / वीरमति माता ज्ञान में वीर, चारित्र में वीर एवं बुद्धि में भी वीर होती है।
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