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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२५ [५३ ] विशाल बुद्धि को प्राप्त आचार्य प्रवर के देखने के लिए/दर्शन के लिए वह वीरमती कुंथलगिरि जाती है, उनकी संलेखना के समय में विनम्र भाव से संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए उनके सम्मुख निवेदन करती है। [५४ ] वह अत्यन्त वीरा/वीरमती नम्र एवं सरल भाव से संसार से पार होने के लिए साम्यभाव को धारण कर सम्यधर्म के मार्ग पर प्रवर्तन हेतु सुधर्म के श्रेष्ठ आर्यिका पद के हेतु श्री वीरसागर गुरु से आत्म-ध्यान की आज्ञा चाहती है। [५५ ] चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर हैं, उनके श्रेष्ठ पद के अधिकारी प्रथम पट्टाधीश वीरसागर हैं। जो स्वयं शान्तिसागर के पथ पर उनके पद चिह्नों पर चलने वाले और धर्म की प्रभावना करने वाले हैं। [५६] वह विराग से पूर्ण वीरमति क्षुल्लिका लक्ष्य की सिद्धि के निमित्त दीक्षा के शुभ दिन से मानों उन्नत, चंचल लहरों वाले ज्ञान गुण रूपी गौरव समुद्र में प्रविष्ट करती हुई गंभीर भाव को धारण कर रही हो। [५७ ] ज्ञान रूपी समुद्र में अत्यन्त धीर सम्यक् पथ का आश्रय पाने वाले ही प्रविष्ठ होने में समर्थ हो सकते हैं। जन्म से लेकर समस्त अज्ञान रूपी कलंक युक्त, समत्व धर्म से विहीन क्या हमारे जैसे व्यक्ति आपके ज्ञान समुद्र को पार करने में समर्थ हैं ! शान्ति से युक्त श्रमण के चरणों में विचरण करने वालों का वह पथ निष्कलंक, रमणीय एवं अत्यन्त प्रशंसनीय हो जाता है तथा निश्चय ही वही धर्म रूपी शस्त्र का आश्रय लेकर संसार सागर से पार होने में समर्थ होता है। इसलिए उनके धर्मपथ के निमित्त रत्नत्रय का ध्यान करती हूँ। [५९ ] वात्सल्य स्वभाव की प्रभावना का संचालन करने वाले तुम्हारे शान्त स्वरूप विशाल/विशिष्ट/पवित्र जल में स्नान करती हूँ। आपके यान में बैठकर मनुष्य संसार पार हो जाते हैं। और असार से मुक्त, प्रमाद से रहित वे व्यक्ति सार को प्राप्त कर लेते हैं। [६०] आपके चरणों में एवं आपके धर्म मार्ग में भक्ति है, शक्ति भी है। लोक/संसार में समत्व धर्म कृत-कृत्य करने वाला है। वह निर्दोष है, अन्धकार को नष्ट करनेवाला और प्रशंसनीय है। आपके अमृत रस धार के समागम से शान्ति है। [६१] हे जगनाथ ! तुम ही तीर्थ के, समग्रबोध को प्रदान करने वाले हो ! हे जगदीप ! आप दीव के सदृश हो, श्रमणधर्म के प्रदीप हो। आप दीप्ति से रहित हम मनुष्यों को प्रदीप्त करते हैं। अतः आप कल्याणमार्ग का सम्यक् धर्म मुझे प्रदान करें। [६२ ] जो वीरमति वीर के पथ में धैर्यपूर्वक विचरण करने वाली है, वह वीरसागर/आचार्य वीरसागर मुनि से सम्यक् मार्ग पर चलने के लिए निवेदन करती है। वह सम्यक् रथ पर आरूढ़ श्रेष्ठ धर्म के रस में निमग्न आर्यिका पद की दीक्षा/श्रमण दीक्षा मुझे प्रदान करें। [६३ ] हे ! ज्ञान दर्शन गुण के दर्शन करने वाली ! हे वीर पंथ की सुनगामिनी वीरमति ! आपके वचनों में सत्य है, मधुर और सत्य को धारण करने की शक्ति है। आपके हृदय में जो भावना है, मेरा उसमें कोई विरोध नहीं है। [६४ ] वह क्षुल्लिका वैशाख कृष्ण द्वितीया के शुभ दिन में श्रेष्ठ धर्म के सारभूत आर्यिका पद को प्राप्त होती है। उस समय उनको ज्ञानमति नाम से अलंकृत किया जाता है। मानों ज्ञान मार्ग के सम्यक् पथ में प्रदीप जला दिये गये हों। [६५ ] वह ज्ञानमति माता नाम से ज्ञान के प्रकश का चन्दन की सुगन्ध की तरह प्रत्येक दिशा में फैलाती जाती है। ज्ञान से विहीन जनों को वीरधर्म के रथ की ओर ले जाती है। क्योंकि ज्ञान की ज्योति नभ की समानता से ममत्व को नाश करने वाली है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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