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________________ ३२६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६६] ज्ञान रूपी जल वाले समुद्र की पूर्ति हेतु ज्ञान को ज्ञानमती माता ज्ञानरथ के रूप में ले जाती हैं। जो हस्तिनापुर की भूमि वीरों को जन्म देने वाली थी, वही भूमि आज पूर्ण रूप से सम्यक् ज्ञान से पवित्र हो रही है। [६७ ] उन माताजी के ज्योतिर्मय वचनों से (वह भूमि) प्रकाशशील है और जो भूमि ज्ञान रूपी ज्योति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है वहां पर सप्त भंग, मय, द्रव्य, पदार्थ को जानने एवं मनन करने में मन सदैव लगा रहता है। [६८] सम्यक् दर्शन मोक्ष का प्रथम श्रेष्ठ धर्ममार्ग है। ज्ञान और चारित्र से पूर्ण सम्यक्दर्शन लोक में रत्न तुल्य है। इसको बीज स्वरूप, जगत् के वृक्ष की मूल/जड़/आधारस्वरूप माना गया है। ऐसा सम्यक्दर्शन लोक में सुलभ नहीं है। [६९ ] उसका धारण करना परम रम्य पथ का बोध करना है। क्योंकि सम्यक्दर्शन पुरुष का प्रयोजन भूतमहत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्योतिस्वरूप परम पद के दान देने में समर्थ तथा संसार में अक्षय, शुद्ध एवं प्रबुद्ध दान स्वरूप ज्ञान है। [७०] संसार में मनुष्य निश्चय ही सम्यक्दर्शन के बिना परिभ्रमण करता है, अनन्त समय तक अज्ञान में ही ज्ञान मानने पर हजारों दुःख को प्राप्त करता है। वह ज्ञान के बिना चारित्र, पवित्र भाव से हीन होता है। चारित्र के आचरण करने से संसार का भार बढ़ता नहीं है। [७१ ] ज्ञान सभी के लिए कल्याणकारक है, सुख को प्रदान करने वाला धान्य का बीज है, संसार सागर से पार होने के लिए तरणी के समान है। पाप रूपी वृक्ष के नाश करने के लिए कुठार/कुल्हाड़ी के सदृश है। ज्ञानमती का ज्ञान जहाज में नाविक की तरह है (जो सबको पार लगाने वाला है)। [७२ ] योग एवं गुण से गाय धर्म धारण कराने का जिन ज्ञानमतीजी का ज्ञान जीव को रत्नत्रय धर्म धारण कराने वाला है, जिसके अवगाहन से प्रज्ञा की प्रधानता वाले समुद्र को पार किया जाता है, ज्ञान आदि के योग एवं गुण से ज्ञेय के प्रयोजन सिद्ध होते हैं। उन ज्ञानमती माताजी का ज्ञान एवं ध्यान हमें सम्यक्ज्ञान प्रदान करें। [७३ ] जो लोग अपार संसार में भटक रहे हैं, वे भक्त ज्ञानमतीजी के ज्ञानमार्ग से मुक्त होकर प्रमाद से मुक्त हो जाते हैं। शुभ ज्ञान के ध्यान करने से लोक के शिखर पर पहुँचा जा सकता है। जिस तरह स्वर्ण मल और पाषाण से मुक्त हो जाता है। [७४ ] ज्ञानमती का ज्ञान हमारे सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण हो। उनके दर्शन से ज्ञान प्राप्ति एवं सम्यक् चरित्र धर्म बढ़ता है। सामान्य धन से संसार, रति भाव और दोष को बल मिलता है, किन्तु चारित्र के सम्यक् आचरण से मुक्त का पुरुषार्थ बढ़ता है। _ [७५ ] तत्त्व से बोध होता है, सुयोग्य भाव एवं मन का निग्रह होता है। आत्म-ज्ञान से आत्म-हित, शुद्ध भाव एवं समत्व भाव उत्पन्न होता है। राग, दोष से रहित एवं क्षोभ से मुक्त व्यक्ति मोह से मन को मारता है और सम्यक्ज्ञान का आचरण करता है। [७६ ] शान्ति वचन से, अनरूप सम्यक् सौम्य प्रकृति से एवं न्याय से/ विवेक से तत्त्व, ज्ञान, नय दृष्टि, शान्त स्वभाव एवं ज्ञान की महनीयता प्राप्त होती है। वैशिष्टता के साथ भद्र परिणाम, हितकारी बोध, शास्त्र के रहस्य का ज्ञान होता है। सिद्धान्त से सार, उसके रहस्य को समझते हुए विद्या/ज्ञान को प्राप्त होता है। [७७] वे ज्ञानमती संस्कृत का अध्ययन करती, जिससे वे साधुवर्ग में प्रतिष्ठा को प्राप्त होती हैं। वे आर्यिका हैं, उससे पूर्ण सुशोभित हैं, फिर भी आचार्य के प्रसाद मुक्त गुण के भार का सदैव स्मरण करती हैं। संस्कृत के सम्यक् भाषण को दीपक के प्रकाश की तरह उत्पन्न करती हैं। [७८] वे मोह रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए शास्त्रों का मनन करती हैं वे उन्हें सन्मार्ग के दर्शी प्रकाशवान् दीपक की तरह मानती हैं, दोषों के दोष/रात्रि के दोष रूप गुण को समझती हुई सदैव धर्म पर प्रवर्तित होती हैं। तत्त्व ज्ञान के लिए वे नभ की पूर्ण दृष्टि का उपयोग कर सम्यक् ज्ञान को जानना चाहती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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