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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२७ [७९ ] वे आनन्दयुक्त वचनों से गुरुओं का सम्यक् ध्यान करती हैं एवं पूर्ण स्वाध्याय युक्त, गुण की सिद्धि के निमित्त वे विचरण करती हैं तथा स्वाध्याय की वृद्धि हेतु सदैव मुनिधर्मपूर्वक जिनागम एवं शास्त्रों का अध्यापन कराती हैं। आपका अध्यापन एवं मनन-चिन्तन का कर्म सदैव चलता है। अध्यापन हेतु आपने नवीन पद्धति से बालबोध की रचना की। धर्म के सार एवं सम्यक् आचार के प्रचार के निमित्त शैक्षणिक शिवरों का आयोजन सदैव करती रहती हैं। [८१ ] जो स्वयं कृपाभाव एवं दया से युक्त हैं, सत्य व्रत में अनुरक्त सम्यक् सत्य से युक्त हैं, ब्रह्म में विचरण करती हुई अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाती हैं, ऐसी ब्रह्मा की आराधक ज्ञानमती का ज्ञान आत्मज्ञान को जानना चाहता है। [८२ ] ज्ञान, तप, दर्शन और संयम से धीर सदा ज्ञान को बढ़ाती हैं, और धर्म में प्रवृत्त होती हैं। कर्म रूपी ईधन के नष्ट करने के लिए तप तपती हैं और चारित्र के निर्मल पद में प्रवृत्त ज्ञानपूर्वक आचरण करती हैं। [८३ ] अनुप्रेक्षापूर्वक अध्यात्म-तत्त्व का ग्रहण करती हैं, सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान एवं सम्यक् वीरता से युक्त, ध्यान में रमती है, सूक्ष्मतत्त्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व, अगुरु-लघुत्व रूप सिद्ध स्वरूप का ध्यान करती है। [८४ ] वे संस्कृत की तरह प्रकृति युक्त प्राकृत भाषा के सभी आगम ग्रन्थों, गणित के ग्रन्थों एवं शास्त्रों का ज्ञान करती हैं। क्योंकि प्राकृत भाषा प्रकृत से सुकुमार, कान्ति से युक्त साधारण जन-जन की भाषा है। [८५ ] सिद्धान्त, आगम एवं गणित के विशाल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। वे सभी ग्रन्थ, जिनमें सम्यक् रूप में अर्थ से पूर्ण वचनों का समावेश है ज्ञानमती माता उनकी विशुद्धता के लिए/उनके विशेष अर्थ के लिए धारण करती हैं/अनुभव का विषय बनाती हैं। [८६] एक समय वर्षावास के सुशान्त वातावरण में समत्व भाव से युक्त बाहुबली के/गोम्मटेश की विशाल प्रतिमा के चरणों में ध्यान कर रही थीं, मौन भाव से युक्त, पर्वत की श्रृंखला पर ध्यानरत, विन्ध्यगिरि पर सम्यक् ध्यान से युक्त पन्द्रह दिन व्यतीत कर देती हैं। वे उस ध्यान काल के बीच ज्योति से ज्योतिर्भूत अकृत्रिम चैत्यालयों के स्थान को, गंगा, सुमेरु पर्वत, सिन्धुनदी, विदेह क्षेत्र को सौन्दर्य से युक्त, अनुपम एवं उन्नतशील देखती हैं। [८८] तभी से धर्म ध्यान के परिपूर्ण प्रशान्त भूत करणानुयोग के ग्रन्थों का देखना प्रारम्भ कर देती हैं। अध्ययन में रत उनके अवलोकन की गति वर्षप्रतिवर्ष एवं कई वर्ष की विशालता को प्राप्त होती जाती है, तब वे परिकल्पना करती हैं। वे संकल्प से युक्त जन मानस एवं विद्वत्जनों को ज्ञान कराने, साकार रूप देने उसका प्रतिपादन करती हैं, एक-दूसरे के वचनों का ध्यान करती हैं। प्रवर ध्यान एवं सुज्ञान की प्रज्ञाशीला ज्ञानमती माता, उस दक्षिण की कल्पना को उत्तरापथ के भाग में कमनीय बनाती हैं। [९०] शीघ्र नंदीश्वरद्वीप की रचना कराकर जंबूद्वीप की रचना से मनुष्यों को आकर्षित करती हैं। मानो वे हस्तिनापुर के उस रमणीय भाग, पुराण गाथा को अक्षुण्ण बनाने हेतु ही जंबूद्वीप की परिकल्पना करती हैं। [९१ ] वे सुशान्त भाव से एवं विनय से शास्त्रों का चिंतन करती हैं। सम्यक्दर्शन का मनन, चिंतन एवं बोध करने के लिए अष्ट अङ्ग की समीचीनता के गुण को धारण कर समत्व से युक्त, आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम एवं शास्त्र की प्रसिद्धि को प्राप्त होती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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