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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
चौबोल छन्द
लोकालोक विलोकन लोकित, सल्लोचन है सम्यग्ज्ञान । भेद कहे प्रत्यक्ष परोक्ष, द्वय हैं सदा नमूं सुखदान ॥१॥ चारित्रभक्ति-(पृ. १९५ से उद्धृत) चमकितमुकुट मणि की प्रभ से, व्याप्त सु उन्नत है मस्तक । कंकणहारादिक से शोभित, त्रिभुवन के इन्द्रादिक सब ।। जिससे उनको स्वपद कमल में, नमित किया नित मुनियों ने।
उन अर्चित पंचाचारों को, कथन हेतु अब नमूं उन्हें ॥१॥ इसी द्वितीय खण्ड में पाक्षिक प्रतिक्रमण दिया गया है, जो पृ. २४४ से प्रारंभ होकर ४४३ पृ. तक २०० पृष्ठों में है। इस पूरे प्रतिक्रमण के साथ पूज्य माताजी ने अपने अथक परिश्रमपूर्वक किये गये हिन्दी पद्यानुवाद को दिया है तथा प्राकृत पाठ के नीचे उसकी संस्कृत छाया भी दी गई है, जो कि संस्कृत भाषाविद् साधुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
यह प्रतिक्रमण प्रत्येक चतुर्दशी को तो किया ही जाता है तथा इसी में चातुर्मासिक सांवत्सरिक आदि शब्द पाक्षिक के स्थान पर जोड़कर चार महीने में और एक वर्ष में भी किया जाता है। कार्तिक शु. १४ को एवं फाल्गुन शु. १४ को इस प्रकार वर्ष में दो बार तो चातुर्मासिक प्रतिक्रमण होता है तथा आषाढ़ शु. १४ को सांवत्सरिक-वार्षिक प्रतिक्रमण होता है। यमसल्लेखना से पूर्व क्षपक साधु को यही प्रतिक्रमण "औत्तमार्थिक" के रूप में कराया जाता है, तब पाक्षिक के स्थान पर "औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण क्रियायां" बोलते हैं। इस प्रतिक्रमण में पाँचों महाव्रत और छठे अणुव्रत के छह दण्डक रहते हैं, जिनमें व्रतों के समस्त अतिचारों को छोड़ने की प्रेरणा गौतमस्वामी ने प्रदान की है। उन गणधरस्वामी के मुखकमल से प्रकट हुए दण्डकों में से एक का पद्यानुवाद मैं यहाँ दे रही हैं, ताकि आप यह समझ सकें कि मात्र प्राकृत् शब्दों का उच्चारण ही पर्याप्त नहीं है, प्रत्युत जिन्हें हम छोड़ने और ग्रहण करने का संकल्प ले रहे हैं, उन्हें समझें तो सही, तभी पढ़ना सार्थक हो सकता है-(पृ. ३५३ से उद्धृत) "असंजमंवोस्सरामि संजमं अब्भुढेमि ... . " इत्यादि।
"मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ। सग्रंथ अवस्था तजता हूँ, निर्ग्रन्थ में स्थिर होता हूँ। सवस्त्र अवस्था तजता हूँ, निर्वस्त्र में स्थिर होता हैं।
मैं अलोच को परिहरता हूँ, लोच क्रिया में स्थिर होता हूँ ॥१५॥" प्रत्येक १५ दिनों में किये जाने वाले इस वृहत् प्रतिक्रमण के द्वारा ज्ञात-अज्ञात में हुए समस्त दोषों का क्षालन तो होता ही है, इसके अतिरिक्त आचार्य या गणिनी के सानिध्य में किये गए इस प्रतिक्रमण के मध्य में यथास्थान १५ दिनों का प्रायश्चित भी आचार्य या गणिनी से लिया जाता है, तभी दोषों की शुद्धि मानी जाती है।
इसी प्रकार प्रत्येक अष्टान्हिका पर्व में साधुओं द्वारा की जाने वाली नंदीश्वर क्रिया दी गई है। श्रुतपंचमी क्रिया, वर्षायोग प्रतिष्ठापन-निष्ठापन क्रिया, वीर निर्वाण क्रिया, निषद्यावंदना क्रिया, केशलोंच प्रारंभ-समापन क्रिया आदि अनेक क्रियाएं इस द्वितीय खंड में हिन्दी सहित दिए गए हैं, इसीलिए इस खंड का विषय काफी बढ़ गया है। पृ. १७८ से ५६९ तक द्वितीय खंड नैमित्तिक सर्वक्रियाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।
आगे तृतीय खंड में सुप्रभात स्तोत्र, चतुर्दिग्वंदना, सर्वदोषप्रायश्चित्तविधि व कल्याणालोचना हिन्दी पद्यानुवाद सहित हैं तथा इसमें पूज्य माताजी ने स्वरुचि के आधार पर स्वरचित सोलह कारण पर्व, दशलक्षण पर्व, पंचमेरुवंदना, जम्बूद्वीपवंदना तथा सुदर्शनमेरुवंदना आदि क्रियाएं, उनकी भक्तियाँ आदि दी हैं, जो समयानुसार की जा सकती हैं। अन्त में सरस्वती स्तोत्र है, ग्रंथ के समापन में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने इस मुनिचर्या ग्रंथ की प्रशस्ति संस्कृत के ९ श्लोकों में दी है, जो ग्रंथ की प्रामाणिकता का दिग्दर्शन कराती है। पृ. ५७० से ६२८ तक यह तृतीय खंड ग्रंथ की पूर्णता की सीमा बताता है।
इस ग्रंथ में प्रत्येक क्रिया किसी न किसी आचार ग्रंथ के आधार से ही दी गई है, इसीलिए यह संकलित ग्रंथ का आवरण पहनकर एक “संहिताग्रंथ" के रूप में साधु समाज के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। समस्त क्रियाओं की प्रामाणिकता के लिए यथास्थान मूलाचार,अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों के उद्धरण दिये गये हैं।
इस ग्रंथ की प्रस्तावना में पूज्य माताजी ने लिखा है कि "इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है, वह सब पूर्वाचार्यों का ही है, फिर भी पद्यानुवाद आदि में यदि कोई कमी रह गई हो तो विद्वान् साधुवर्ग मुझे अवश्य ही सूचित करें, जिससे आगे उस पर विचार कर संशोधित किया जा सके।" मैं समझती हूँ कि यह उनकी उदारता और महानता ही है।
___इस ग्रंथ के लेखन में क्रियाकलाप, मूलाचार, आचारसार, अनगारधर्मामृत, चारित्रसार, प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी, सामायिक भाष्य, दशभक्त्यादिसंग्रह, धवला पुस्तक कुंदकुंद भारती आदि १० ग्रंथों का आधार लिया गया है, इससे स्वयमेव प्रकट हो जाता है कि गौतम स्वामी से लेकर प्रायः सभी आचार्यों
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