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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि की विधि बताई है, जो कि शायद साधुवर्गों को भी नवीन प्रतीत होगी, किन्तु इस विषय में पूज्य माताजी ने आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी के मूलाचार ग्रंथ का प्रमाण भी उद्धृत किया है
णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसि विभागसोधीए।
पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए ॥२७३ ॥ इस गाथा का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वैरात्रिक स्वाध्याय के अनन्तर साधुओं को अपनी वसतिका से बाहर निकलकर पूर्वाहकाल के स्वाध्याय हेतु दिग्विभाग शुद्धि के लिए प्रत्येक दिशा में कायोत्सर्ग से स्थित होकर ९-९ गाथा प्रमाण (णमोकार मंत्र का) २७ श्वासोच्छवासपूर्वक जाप्य करना चाहिए। ऐसे ही पौर्वाहिक स्वाध्याय के पश्चात् अपराण्ह स्वाध्याय हेतु प्रत्येक दिशा में ७-७ बार णमोकार मंत्र २१ उच्छ्वासों में पढ़ना चाहिए और अपराण्हिक स्वाध्याय के पश्चात् तत्काल ही पूर्वरात्रिक स्वाध्याय की दिक्शुद्धि हेतु ५-५ बार णमोकार मंत्र चारों दिशाओं में खड़े होकर १५ उच्छ्वासों में पढ़ना चाहिए।
पश्चिमरात्रिक स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि का विधान नहीं है, क्योंकि उस समय सिद्धान्त ग्रंथ पढ़ने का निषेध है । उस काल में भी सिद्धान्त ग्रंथों के अधिकारी ऋद्धिधारी मुनि आदि ही हैं, ऐसा आचारसार ग्रंथ में कहा है। इसकी पूर्ण प्रयोग विधि मुनिचर्या ग्रंथ के पृ. २३ पर है, वहाँ से देखें।
रात्रिक (दैवसिक) प्रतिक्रमण का हिन्दी पद्यानुवाद भी पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ के छपते समय ही तैयार किया था, वह पूरा हिन्दी पद्य प्रतिक्रमण सरल भाषा में पृ. ५४ से ८० तक दिया गया है। जो कि संस्कृत-प्राकृत व्याकरण से अनभिज्ञ साधुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है। अपने जिन दोषों की आलोचना साधुगण सुबह-शाम प्रतिक्रमण के माध्यम से करते हैं, उन दोषों को समझते हुए उसकी आलोचना करने में निश्चित ही कर्मनिर्जरा अधिक होती है, इसी दृष्टि से हिन्दी प्रतिक्रमण श्री गौतमस्वामी की भाषा का ही सरलीकरण है। इस नित्य क्रिया वाले प्रथम खंड में २८ कायोत्सर्ग यथाक्रम . वर्णित हैं और सब जगह वे क्रियाएं भी दी गई हैं कि किसके बाद क्या करना चाहिए। सामायिक विधि एवं सामायिक संस्कृत-हिन्दी दोनों प्रकार की दी गई हैं। आचार्यवंदना प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल तीन बार कृतिकर्मपूर्वक करने का भी यथास्थान प्रयोग विधिपूर्वक वर्णन है। इन्हीं दैनिक क्रियाओं के अन्तर्गत “साधुओं की आहारचर्या कब और कैसे होनी चाहिए" इस विषय पर भी पृ. १४७ से १५६ तक आगमोक्त प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार १७७ पृष्ठों तक समस्त दैनिक क्रियाओं का वर्णन है, इसमें समस्त क्रियाओं के साथ हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रकाशित किया गया है, जिससे क्रियाओं की पूर्णता में कोई संदेह नहीं रह जाता।
इस मुनिचर्या के द्वितीय खंड में नैमित्तिक क्रियाओं का प्रकाशन है, जिसमें चतुर्दशी पर्व क्रिया से शुभारंभ किया गया है। यूँ तो चतुर्दशी के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण तो सभी साधु करते हैं, तथापि “चारित्रसार" ग्रंथ के प्रमाणानुसार चतुर्दशी को तीनों काल की सामायिक में चैत्यभक्ति के बाद श्रुतभक्ति करने का विधान बताया है, उसकी प्रयोगविधि मुनिचर्या ग्रंथ के पृ. १७८ से १८० तक वर्णित है। यदि कोई साधु चतुर्दशी के दिन सामायिक में श्रुतभक्ति करना भूल जावे तो दूसरे दिन उसे "पाक्षिकी' नामक क्रिया करने का आदेश दिया है, इस विषय में अनगार धर्मामृत का प्रमाण भी पूज्य माताजी ने पृ. १८० पर उद्धृत किया है।
अष्टमी पर्व के दिन भी विशेष क्रिया की जाती है, उस पूरी क्रिया का भक्ति और दण्डक सहित पूरा हिन्दी पद्यानुवाद भी साथ-साथ यथास्थान ही प्रकाशित है। पद्यानुवादक, गणिनी आर्यिका श्री का यह पुरुषार्थ सतत सराहनीय है कि उन्होंने सभी भक्तियों एवं प्राकृत के क्लिष्ट दंडकों का अर्थ हम सभी को समझाने हेतु यह अनन्य उपकार किया है। पाठक साधुवृन्द उनका आनन्द तो यथास्थान ही प्राप्त करेंगे। जैसे-पूज्यपाद स्वामीकृत संस्कृत सिद्धभक्ति के प्रथम श्लोक "सिद्धानुद्भूतकर्मप्रकृति-इत्यादि का पद्यानुवाद यहाँ प्रस्तुत हैशम्भुछंद-(पृ. १८३ से उद्धृत)
सब सिद्ध कर्मप्रकृती विनाश निज के स्वभाव को प्राप्त किये। अनुपम गुण से आकृष्ट तुष्ट मैं वंदूं सिद्धी हेतु लिये॥ गुणगण आच्छादक दोष नशें सिद्धी स्वात्मा की उपलब्धी।
जैसे पत्थर सोना बनता हो योग्य उपादान अरू युक्ती ॥१॥ इन कठिन संस्कृत भक्तियों का यह सरल पद्यानुवाद हम सभी के लिए बिना परिश्रम के फल खाने सदृश है, अतः इनका सदुपयोग तो हमें अवश्य करना चाहिए।
इसी प्रकार श्री पूज्यपाद स्वामी की ही श्रुत और चारित्र भक्ति के भी एक-एक हिन्दी पद्य यहाँ प्रस्तुत हैंश्रुतभक्ति- (१८९ से उद्धृत)
१. मध्याह्न सामायिक के बाद १ बजे से लेकर शाम को प्रतिक्रमण से पूर्व तक जो स्वाध्याय किया जाता है, वह अपराहकालीन स्वाध्याय कहलाता है। मध्याह्न का लीन स्वाध्याय नहीं होता है, मध्यान्ह काल में सामायिक होती है। २. यह दिकशुद्धि सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए की जाती है।
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