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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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ने साधुओं की चर्या पर प्रकाश डाला है। इन सबको एक जगह संकलित करने का श्रेय पूज्य माताजी ने प्राप्त किया। उनके इस कठिन परिश्रम का मूल्यांकन कर इस युग के समस्त साधुवर्ग "मुनिचर्या" नामक इस वृहत्काय ग्रंथ का सदुपयोग करेंगे, यह मुझे पूर्ण विश्वास है।
जिस नगर, गाँव या शहर में दिगम्बर मुनि-आर्यिकादि विराजमान हों, वहाँ के श्रावक जम्बूद्वीप संस्थान, हस्तिनापुर से सम्पर्क करके "मुनिचर्या" ग्रंथ मंगाकर साधुओं को समर्पित करें, इससे ज्ञानदान का महान् पुण्य अर्जित होगा।
"इति शुभम्"
कुन्दकुन्दमणिमाला : समीक्षा
-डॉ. जयकुमार जैन एस.डी. कालेज, मुजफ्फरनगर
कुन्दकुन्द
किसी भी मङ्गल कार्य को प्रारम्भ करने के पहले जैन धर्मावलम्बियों में एक श्लोक पढ़ने की परम्परा है
"मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी।
मङ्गलं कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥" स्पष्ट है कि महावीर और उनकी दिव्यध्वनि के धारक गौतम गणधर के बाद जैन परम्परा में कुन्दकुन्दाचार्य को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । कुन्दकुन्दाचार्य श्रमणसंस्कृति के उन्नायक जैन धर्म के अग्रणी प्रतिभू एवं दान्तिक शैली में लिखित आध्यात्मिक साहित्य के युगप्रधान आचार्य हैं। भारत के अध्यात्म-वाङ्मय के विकास में उनका महनीय एवं अप्रतिम योगदान रहा है। उनकी महत्ता इसी से जानी जा सकती है कि उनके पश्चाद्वर्ती आचार्य अपने को कुन्दकुन्दान्वयी/कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवान्वित समझते हैं।
उच्चकोटि के विपुल साहित्य के प्रणयन में कुंदकुंदाचार्य भारतीय वाङ्मय में अग्रणी हैं। उन्होंने अध्यात्म विषयक एवं तत्त्वज्ञानविषयक चौरासी प्राभृतों की रचना की थी। दुर्भाग्य से आज उनके सभी ग्रंथ उपलब्ध
नहीं हैं। उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ इस प्रकार हैं-दशभक्ति, अष्टप्राभृत, प्रवचनसार, समयसार, पञ्चास्तिकाय,
नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा एवं रयणसार । मूलाचार कुंदकुंदाचार्य की रचना है या नहीं यह अत्यन्त विवादास्पद है? पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी मूलाचार को कुंदकुंदाचार्य द्वारा प्रणीत स्वीकार करती हैं।
'कुंदकुंदमणिमाला' एक संकलन है, जिसमें पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार सहित कुंदकुंदाचार्य के उपर्युक्त ग्रंथों से अत्यन्त उपयोगी एवं सारभूत १०८ गाथाएं गुम्फित की हैं। इन गाथाओं का महत्त्व सम्प्रति और अधिक बढ़ गया है, क्योंकि एकान्तपथकूप में पतितजनों को उबारने में ये सोपान या रजु के समान हैं। इन गाथाओं में महाव्रती मुनि-आर्यिकाओं एवं अणुव्रती श्रावक-श्राविकाओं को अपने मोक्षमार्ग में दृढ़ता की प्रेरणा संदिष्ट है। विषयवस्तु के अनुसार भक्ति अधिकार में १५, श्रावकधर्माधिकार में २१, मुनिधर्म सरागचारित्राधिकार में २४, वीतरागचारित्राधिकार में ४० और वीतरागचारित्र फलाधिकार में ८ गाथायें हैं।
भक्ति अधिकार की गाथायें दशभक्ति, मूलाचार एवं नियमसार से संकलित हैं। इनके अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि वीतराग भगवान् 'अन्यथाकर्तुम्' समर्थ नहीं हैं, तथापि भक्तिवश जिनेन्द्र भगवान् से की गई आरोग्य, बोधि एवं समाधि की प्रार्थना निदान रूप न होने से दोषप्रद नहीं है। इस संबंध में मूलाचार की एक गाथा को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि “जिनवरों की भक्ति से पूर्वभवों में संचित कर्म क्षय हो जाते हैं तथा आचार्यों की प्रसन्नता से विद्यायें एवं मंत्र सिद्ध हो जाते हैं"-इस बात का महत्त्व बताने के लिए पू. माताजी ने यह गाथा दी है
'भत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्मं । आयरियपसाएण य विज्जा मंता य सिझंति ॥"
(कुंदकुंदमणिमाला, १३) गुरुओं की भक्ति से कर्मनिर्जरा तो होती ही है, नियमसार में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो श्रावक या मुनि रत्नत्रय में भक्ति करते हैं, उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है
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