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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
के कर कमलों द्वारा ज्ञानज्योति का उद्घाटन हुआ, जो समस्त देश में भ्रमण करती हुई मिथ्या अन्धकार में फँसे प्राणियों को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करती रही।
हिमालय से कन्याकुमारी तक १०४५ दिनों में राजस्थान, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, आसाम, नागालैण्ड, मणिपुर, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, पंजाब, चण्डीगढ़, हिमाचल प्रदेश आदि के नगर-नगर में भ्रमण करती हुई इस महान् ज्योति ने हजारों छोटे-बड़े नगरों में धर्म-सहिष्णुता एवं चारित्र निर्माण का प्रचार-प्रसार किया। जुआ, शराब, धूम्रपान एवं मांसाहार का हर प्रदेश में बड़ी संख्या में लोगों ने त्याग किया। जैन- जैनेतरों में बिना किसी भेदभाव के ज्ञान का प्रचार-प्रसार करती हुई इस ज्योति ने लोगों में अहिंसा,मैत्रीभाव एवं धर्मसमभाव का जिस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया, भारतीय इतिहास में ऐसा महान् समयोचित कार्य पहले कभी नहीं हुआ था। मध्यप्रदेश के अनेक नगरों में ऐसे कभी जुलूस नहीं निकले थे, जैसे "ज्ञानज्योति" के आगमन में निकले। जिन स्थानों पर आपसी वैर-विरोध व भेदभाव थे, इसके पहुँचने से वहाँ "एकता" व मैत्रीभाव स्थापित हुए।
इतने सुदूर की यात्रा में बिना किसी विघ्न-बाधा के ज्योति यात्रा संघ को यथायोग्य सम्मान प्राप्त हुआ। प्रदेशों के मुख्यमंत्री से लेकर अधिकारी वर्ग व गणमान्य नागरिकों ने ज्ञानज्योति का अपूर्व स्वागत किया। समस्त नगर सजाये गये कहीं-कहीं तो रात्रि भर नगर दीपावली जैसा दीपमालाओं से सुसज्जित रहा। यह सब प्रवर्तन इतने लम्बे समय तक गर्मी, ठण्ड व बरसात में अखण्ड रूप से चलता रहा; यह सब गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के शुभाशीर्वाद व दृढ़ संकल्प का सुपरिणाम है।
मुझे भी ज्ञानज्योति के प्रवर्तन में मध्यप्रदेश के बाद सेवा करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ एवं धर्मप्रचार के साथ-साथ संस्था व समाज का भी इससे यथाशक्ति विकास करने का परम सौभाग्य मिला। पूज्य श्री माताजी ने सोमप्रभ एवं श्रेयांसकुमार द्वारा देखे गये सुमेरु पर्वत की, जिस पर भगवान् का जन्माभिषेक महोत्सव होता है, हस्तिनापुर में करोड़ों वर्षों के बाद साकार रूप दिया। धन्य है यह बीसवीं सदी की नारी, जिसने अपने शुभाशीर्वाद से एक अमर कृति के रूप में "अखण्ड ज्ञान ज्योति" की स्थापना इस हस्तिनापुर में की एवं समस्त भारत को गौरवान्वित किया। संस्था के भूतपूर्व मंत्री बाल ब्र० श्री मोतीचंदजी शास्त्री न्यायतीर्थ एवं श्री रवीन्द्र कुमारजी बी०ए० शास्त्री की भ्रातृत्व व वात्सल्य भावना का यह सुपरिणाम है जिन्होंने अपना समस्त जीवन त्याग व संयमपूर्ण बनाकर इतना महान कार्य पूर्ण किया; इन्हीं दोनों महान् कर्मठ सेवा भावी आत्माओं ने आज भारत-सम्राट चन्द्रगुप्त के सपनों को साकार कर दिखाया।
जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति ने जिस प्रकार से सम्पूर्ण भारतवर्ष में भ्रमण करके उत्तर-दक्षिण, पूरब और पश्चिम के पारस्परिक सौहार्द सम्बन्ध को बलिष्ठ किया है एवं धर्म प्रभावना के साथ-साथ अहिंसा का प्रचार किया है, वह एक ऐतिहासिक बात है। पूज्य माताजी का यह अभिवन्दन महोत्सव रत्नत्रय की कुशलतापूर्वक सम्पन्न हो एवं माताजी शतायु हों।
"जय मातुश्री"
- पं० जमुना प्रसाद जैन शास्त्री, कटनी
लगभग सन् १९४० में मैं टिकैतनगर जैन पाठशाला में पढ़ाने गया था, मेरे कार्यकाल में समाज के लगभग १०० बच्चे-बच्चियाँ पढ़ते थे, उनमें पूज्य माताजी भी “मैना देवी" के रूप में प्राइमरी हिन्दी शिक्षा ले रही थीं, साथ में धार्मिक शिक्षा भी बहुत कुछ ग्रहण की। मैं वहाँ ८ वर्ष रहा, आज भी उस शिक्षा का असर व्यावहारिकता, धार्मिकता में वहाँ के युवकों में भलीभाँति दिखाई पड़ता है। प्रत्येक दीपावली पर पाठशाला के छात्रछात्राएँ मिलकर वार्षिकोत्सव मनाने और मनोविनोद के लिए कोई एक नाटक खेलते। एक वर्ष "वीर अकलंक" नामक नाटक बच्चों ने खेला। क्या मालूम था कि नाटक में अकलंक का पिता से वार्तालाप का दृश्य मैना के ज्ञान चक्षु को खोल देगा।
बस ! मुमुक्षु को जागने में देरी नहीं लगी, चुपचाप अंतरंग में क्रमशः ज्ञान की किरणें फूटने लगीं। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" लोकोक्ति चरितार्थ होने लगी। कुछ दिन बाद परम पूज्य १०८ आचार्यवर देशभूषण मुनिराज ने ससंघ बाराबंकी में चातुर्मास किया। बस, मौका पा मैना ने मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी “सम्यग् श्रद्धा" को धारण कर अपना यह मनुष्य भव (नारी पर्याय) सफल की। आज उनके यश तथा धार्मिक जीवन ने स्वयं को ही नहीं, वरन् अपने पूरे कुटुम्ब तथा पूर्ण टिकैतनगर के साथ भारत की जैन समाज को जगा दिया। जिनकी सूझ-बूझ
और अनुपम ज्ञान की प्रशंसा लेखनी नहीं कर सकती। नारी समाज का गिरा हुआ स्तर सर्वोन्नति के शिखर पर कर दिया। माताश्री की कीर्ति जगत् में ध्रुवतारा-सी अजर-अमर हो, इसी मंगलकामना के साथ पूज्य माताजी के चरणों में मेरी विनयांजलि समर्पित है।
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