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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [९७ कोटिशः नमन् और प्रणमन् - डॉ० सुशील कुमार जैन, सम्पादक जैन प्रभात कुरावली [मैनपुरी] किसी भी मानव का महत्त्व न तो कागज के टुकड़ों से है, न स्वर्ण रंजित आभूषणों से और न गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से। वास्तविक महत्त्व तो उन ज्ञानी, त्यागी, परोपकारी साधुओं से होता है जिनकी ज्ञानज्योति से चारों ओर आलोक व्याप्त हो जाता है। ऐसी हैं हमारे वर्तमान में महान् ग्रन्थों की टीकाकार, सुप्रसिद्ध लेखिका, महान् विदुषी, परम श्रद्धेय, न्यायप्रभाकर, आर्यिकारत्न १०५ ज्ञानमती माताजी। आपने अपने विशाल संघ द्वारा भारत वसुन्धरा के सभी प्रान्तों में अपनी ज्ञानमयी, कल्याणकारी एवं सरल-स्वाभाविक कोमल शैली द्वारा अहिंसामयी "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" परम वाक्य को अपनी जीवनी से सदैव हम लोगों के समक्ष चरितार्थ किया है। अहिंसा एक अमोघ संजीवनी शक्ति है, बिना अहिंसा के कोई भी राष्ट्र प्राण नहीं पा सकता है, आपका ऐसा-अमृत उपकार वचनातीत है। मन्द मुस्कान, प्रसन्न मुद्रा एवं कठोर अनुशासन के साथ मन को झकझोरने वाली स्पष्ट वाणी आपकी अमूल्य निधि है। आपने अपनी प्रखर प्रतिभा से रूढ़िवादिता का मुख मोड़कर समाज, धर्म और संस्कृति के पुरातन आदर्शों पर कायम रहकर अपने कदमों को आगे बढ़ाया है। आप बचपन से ही सरस्वतीमन्दिर की प्रदीप हैं, जो केवल शुद्ध गौ घृत से सदैव जलता है। आप जैन वाङ्मय की मात्र शिल्पी ही नहीं हैं, अपितु महर्षि दधीचि की तरह आपने अपनी हड्डियों को गला-गला कर जैनधर्म और जैन-साहित्य का प्रचार-प्रसार किया है। आपने अनेक शिष्यों को न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, सिद्धान्त आदि विषयों में पारंगत बनाकर अपने समान पद पर ही नहीं, अपने से भी पूज्य मुनि पद पर भी आसीन कराया है। आपसे हमारी समस्त जैन समाज की गरिमा का नित्यशः उन्नयन हो रहा है। आप वर्तमान में प्रखर, प्रकाशित ज्योतिपुंज हैं जिससे जिनधर्म शासन के अभ्युदय, उत्कर्ष एवं प्रसारण रूपी धवल किरणें निःसृत हो रही हैं। आपने जैन वाङ्मय में अभिवृद्धि की है। आपका सारा जीवन अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगमय रहा है। नैरन्तरीय पठन-पाठन में रत रह कर "ज्ञानध्यानतपोरक्तः" वाली विशिष्ट वृत्ति आपमें दृष्टिगोचर होती है। ___ आपने जम्बूद्वीप रचना का हस्तिनापुर में निर्माण कराकर भारत में ही नहीं, अपितु विश्व में एक नया चमत्कार स्थापित किया है, जो सदैव आपकी गुण-गौरव गाथा का यशोगान करता रहेगा। यह आपकी सूझ-बूझ का ही परिचायक है। आज के इस भौतिक युग में राग-द्वेष, जन्म-मरण रूपी रोग को दूर करने के लिए एवं विषय-भोग रूपी कुपथ्य को छोड़ने के लिए दिशासूचकयन्त्र आर्यिकारत्न नीर-क्षीर विवेकी माताजी के चरण सानिध्य में जाना होगा, तभी हम ज्ञान को प्राप्त कर चित्तरूपी सर्प का निग्रह कर सकते हैं। आपके सानिध्य में रहते हुए मैंने सर्वत्र उत्साह, श्रम, उदारता के साथ रचनात्मक रूप से कार्य करने की जिज्ञासा छलछलाती देखी है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि टिकैतनगर की माटी का कण-कण बहुमूल्य रत्नों में परिवर्तित हो गया है। अन्ततोगत्वा मैं अभिवन्दन समिति के कर्णधारों का अभिवन्दन करता हूँ कि उन्होंने अभिवन्दन करने के लिए कृतित्व एवं व्यक्तित्व के सही चूड़ामणि का चुनाव किया है। वास्तव में अभिवन्दन का यह आयोजन पुण्यमय एवं स्तुत्य है। आगे आने वाली पीढ़ी के लिए यह समारोह दीपशिखा का रूप होगा। मैं विश्वास करता हूँ कि आगे आने वाली नवपीढ़ी अभिवन्दनीय माता के पद-चिह्नों पर चलकर अपना जीवन सार्थक करेगी। हम जैसे अल्पज्ञानी के लिए आपके गुणों की प्रशंसा करना अपनी शक्ति से परे है। ___ अन्त में मैं आपके चरण कमलों में बारम्बार कोटिशः नमन् करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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