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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३३५ से धरती पर गिर जाता है और अपने आप को गरीब मानने लगता है। लेकिन धन्य हैं लाला छोटेलालजी, जिन्होंने जन्म के समय एवं बाद में भी लड़के या लड़की में कोई फर्क नहीं समझा और अपने जीवन को कभी अशांत नहीं होने दिया। किसी पिता की एक संतान भी वैराग्य की ओर चल पड़ती है, मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका अथवा अन्य कोई वैराग्य पथ को धारण कर लेती है तो उस पिता को सौभाग्यशाली माना जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, गुणों की प्रशंसा की जाती है लेकिन लाला छोटेलालजी की अब तक तीन पुत्रियाँ आर्यिका बन चुकी है। उनमें से एक विदुषी आर्यिका ज्ञानमती माताजी जैसी विश्व विख्यात आर्यिका हैं। दूसरी विदुषी आर्यिका अभयमती माताजी तथा तीसरी चंदनामती माताजी हैं। जो नव दीक्षित आर्यिका हैं जिनमें ज्ञानमती माताजी का रूप देखा जा सकता है। एक पुत्री कु. मालती एवं एक पुत्र रवीन्द्र कुमार ने वैराग्य की प्रथम सीढ़ी ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है। ऐसी महान् आत्मा श्री छोटेलालजी थे। उन्होंने अपनी सुकोमल एवं सुकुमार बच्चियों को निवृत्ति मार्ग पर बढ़ने से कभी नहीं रोका। अपना दिल पत्थर का कर लिया। लालाजी चाहते तो अपनी संतान को साधु जीवन अपनाने से रोक सकते थे। इसलिये उनका समाज को कितना भारी योगदान रहा इसके बारे में हम आज तक सोच भी नहीं सके, उनके योगदान का मूल्यांकन तो बहुत दूर की बात है। इसीलिये उनका महान् व्यक्तित्व अभी तक दबा-सा रहा। अभी जब मैं आर्यिका रत्नमती माताजी का अभिनंदन ग्रंथ पढ़ रहा था, उसमें भी लालाजी के योगदान पर कोई लेख नहीं है। आर्यिका माताजी के पिता होना ही कम सौभाग्य नहीं होता। आज समाज में कितने पिता हैं, जो यह गर्व कर सकते हैं कि उनकी संतान ने निवृत्ति मार्ग पर चलकर जैनधर्म को जीवन्त बनाया है। आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि तथा आर्यिका जैसे परमेष्ठी पदों पर अपनी संतान को बिठाया है। लालाजी की तो एक नहीं, पांच संतान वैराग्य पथ पर बढ़ रही है। लालाजी का ध्यान तीर्थ यात्रा एवं साधु सेवा पर रहता था। उन्होंने अपने जीवन में सभी तीर्थों की वंदना की। साधु संघों के दर्शन किये उन्हें आहार देकर महान् पुण्य का अर्जन किया। लालाजी की पांच संतान ही निवृत्ति मार्ग पर नहीं बढ़ीं, किंतु उनकी पत्नी ने भी अन्त में १३ वर्ष तक आर्यिका जीवन अपनाया। इससे यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी पत्नी (बाद में आर्यिका रत्नमतीजी) में धार्मिका संस्कारों को जितना भर सकते थे भरा और सारे समाज में एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। हमारी मान्यता के अनुसार सारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिनकी पांच संतान एवं पत्नी ने साधु जीवन अपनाया हो। इसलिये हमें लाला छोटेलालजी पर गर्व होना चाहिये जिन्होंने समाज के सामने एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। आज लालाजी हमारे बीच में नहीं हैं। २५ दिसम्बर १९६९ को उनका स्वर्गवास हो गया। आचार्य सुमतिसागरजी महाराज से उनको अंतिम संबोधन मिला था। णमोकार मंत्र एवं समाधिमरण का पाठ सुनने को मिला था। अंतिम समय में उन्होंने अन्न, जल एवं औषधि का भी त्याग कर दिया था, केवल भगवान जिनेन्द्र में उनका ध्यान था। वे पुण्यात्मा थे, इसलिये उनका मरण भी णमोकार का पाठ सुनते-सुनते हुआ। ऐसी महान् आत्मा का जितना गुणानुवाद गाया जावे वही कम है। मेरा लाला छोटेलालजी को नमन है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दो स्तम्भ : क्ष० मोतीसागरजी एवं ब्र० रवीन्द्र कुमारजी - डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी बड़ी पुण्यशीला एवं प्रभावक आर्यिका हैं। वर्तमान आर्यिका संघों में आप वरिष्ठतम आर्यिका हैं। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही महान् हैं। जिसकी तुलना में किसी को नहीं बिठाया जा सकता। उन्होंने अब तक जो भी सोचा उस में सफलता प्राप्त की। आर्यिका दीक्षा से लेकर वर्तमान समय तक आपके द्वारा जो यशस्वी कार्य सम्पादित हुये उनकी सूची बनाना भी कठिन है। इन सब सफलताओं का प्रमुख कारण है आपके विवेकशील निर्णय एवं निर्णयों को क्रियान्वित कराने का साहस । सारा जैन समाज का आपके पीछे खड़े रहना तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आपको सहयोग देते रहना ही प्रमुख कारण है। लेकिन इन सबके मध्य दो ऐसी हस्तियां है जो छाया की तरह आपके साथ-साथ चलती हैं और माताजी के आदेश एवं इच्छा पर अपना सारा जीवन समर्पित किये हुये हैं। ऐसी दो हस्तियों में एक हैं पूज्य क्षुल्लक मोतीसागरजी महाराज एवं दूसरे हैं ब्र० रवीन्द्र कुमारजी। दोनों को ही समाज पूरी तरह जानता है तथा उनके कामों से भी परिचित है। श्री क्षुल्लक मोतीसागरजी "गुण न हिरानो गुणग्राहक हिरानो है" वाली कहावत के अनुसार ब्र० मोतीचंदजी को ढूंढ निकालने का श्रेय भी ज्ञानमती माताजी को है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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