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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला | माताजी में यह पूर्ण क्षमता है कि वे अंकुर को वृक्ष बनाना जानती हैं वे इस तरह पौधे में पानी एवं खाद डालती है कि वह पौधा उनकी भावना के अनुसार वृक्ष बनकर लहलहाने लगता है। यही घटना घटी ब्र० मोतीसागरजी के जीवन के साथ । ब्र० मोतीचंदजी सनावद के रहने वाले थे। १८ वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। लेकिन गांव में परिवार के साथ रहते तथा व्यवसाय में हाथ बंटाते तथा धार्मिक जीवन व्यतीत करते साधुओं की सेवा करने में सबसे आगे रहते लेकिन घर से बाहर निकल कर किसी संघ में रहने का साहस नहीं जुटा पाते । भाग्य से १९६७ में आर्यिका ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद में ही चातुर्मास हो गया। चातुर्मास में ब्रह्मचारी जी ने समाज के साथ-साथ संघ में सभी साध्वियों की बहुत सेवा की जब माताजी को मालूम पड़ा कि म० मोतीचन्दजी वर्षों से आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लिये हुये हैं, लेकिन आगे नहीं बढ़ पा रहे। समझदार को इशारा काफी वाली कहावत के अनुसार माताजी के हृदय में मोतीचंदजी के प्रति ममता जाग उठी और वे मुक्तागिरी तक माताजी के संघ के साथ चले गये और संघ को मुक्तागिरी तक पहुंचाकर वापिस सनावद आ गये। लेकिन माताजी की विद्वत्ता तथा शिष्यों के प्रति सहज वात्सल्य से ब्र० मोतीचंदजी प्रभावित हुये। कुछ समय पश्चात् वे शिवसागर महाराज के संघ में आकर माताजी से गोम्मटसार, जीव कांड, कातंत्र व्याकरण, परीक्षामुख, न्यायदीपिका आदि ग्रंथ पढ़ने लगे। I ३३६] माताजी का स्नेहपूर्ण शिष्यत्व स्वीकार करके ब्र० मोतीचंदजी निहाल हो गये। उधर माताजी भी ऐसा सुयोग्य शिष्य पाकर उसे पुनः स्नेह देने लगीं। धीरे-धीरे ब्रह्मचारीजी माताजी के परामर्शक बन गये। माताजी का जो भी कार्य होता, ब्रह्मचारीजी उसे चटपट कर देते। माताजी के मन में जम्बूद्वीप निर्माण करवाने की तीव्र अभिलाषा थी लेकिन उसके लिये कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था माताजी की योजना को साकर रूप देने के लिए मोतीचंदजी ने सिद्धवरकूट, देहली, जयपुर आदि स्थानों का निरीक्षण किया, लेकिन माताजी को कोई स्थान अपनी विशाल योजना के लिए उपयुक्त नहीं लगा। इसके पश्चात् हस्तिनापुर की भूमि को देखा गया। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र माताजी को उपयुक्त स्थान लगा और ब्रह्मचारीजी हरसंभव प्रयत्न करके, समाज के अनेक महानुभावों से मिल करके हस्तिनापुर में जमीन का छोटा टुकड़ा प्राप्त करने में सफल हो गये। इसके पश्चात् जम्बूद्वीप निर्माण की अपनी कहानी है जिसमें मोतीचंदजी का प्रमुख योगदान है। मेरा स्वयं का ब्र० मोतीचंदजी से कितने ही वर्षों से संपर्क है। जब जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के साथ भ्रमण का प्रश्न आया तो मैं भी उसकी एक मीटिंग में उपस्थित था। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ की योजना बनी एक-एक स्थान का उल्लेख, कौन-सा स्थान कितनी दूरी पर है वहां के समाज का प्रमुख कौन है, उसका भी उसमें उल्लेख था। आखिर ज्ञानज्योति रथ निकालने की योजना स्वीकृत हुई और ब्र० मोतीचंदजी, पै० बाबूलालजी जमादार आदि को रथ के साथ रहने, उसे प्रभावक बनाने व अधिक से अधिक आर्थिक सहयोग जुटाने का कार्य / उत्तरदायित्व दिया गया। सारे देश में ज्योति रथ के भ्रमण ने समाज में अभूतपूर्व सामंजस्य स्थापित किया। मैंने आपको प्रत्येक कार्य में भूत की तरह जुटा हुआ देखा है तथा त्रिलोक शोध संस्थान के निर्माण में अपना जीवन समर्पित किया है। वर्तमान में ब० मोतीचंदजी क्षुल्लक मोतीसागरजी है। जम्बूद्वीप के पीठाधीश भी है, लेकिन अपना अधिकांश समय माताजी के साथ स्वाध्याय, चर्चा एवं त्रिलोक शोध संस्थान की समस्याओं को सुलझाने में देते रहते हैं। मैंने देखा है कि आप में माताजी के प्रति वही श्रद्धा, वही विनय, वही समर्पण जो पहिले था आज भी विद्यमान है। यही कारण है कि त्रिलोक शोध संस्थान एवं जम्बूद्वीप की ख्याति में दिन-प्रतिदिन स्वयमेव चार चांद लग रहा है। ऐसे महान् आत्मा को मेरा भी नमन है । ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी ' आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दूसरे स्तम्भ है ० रवीन्द्रकुमार यद्यपि वे माताजी के गृहस्थावस्था के छोटे भाई है, लेकिन आर्थिका माताजी के लिये तो भाई का संबंध होता ही नहीं, इसलिये हम उन्हें शिष्य के रूप में देख सकते हैं जैसे ही आप जम्बूद्वीप की परिधि में प्रवेश करेंगे। प्रवेश करते ही स्वागत कक्ष आवेगा, कार्यालय दिखाई देगा और वहीं एक कमरे में अध्यक्ष की कुर्सी पर ब्रहाचारी के वेश में बैठे हुये जो मिलेंगे वे ही ० रवीन्द्रकुमारजी हैं जैसे ही उनको यात्री के आने की सूचना मिलती है उसे किस कमरे में ठहराना है, क्या-क्या सुविधायें देनी है, चाय-पानी, नाश्ता भोजन सभी का एक साथ आदेश सुनाई देगा। ब्र० रवीन्द्रकुमारजी अपना अधिकांश समय इसी कमरे में बैठकर संस्थान के कार्यों को देखते रहते हैं, यात्रियों से मिलना, संस्थान के विषय में जानकारी देना, आगत पत्रों का जवाब देना सभी कार्य उसी कमरे में बैठकर किया जाता है। I रवीन्द्रकुमारजी ४२ वर्षीय युवा ब्रह्मचारी हैं और इन ४२ वर्षों में २० वर्ष आचार्य धर्मसागरजी महाराज के पास आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत को लिये हुये हो गया। जब आपने ब्रह्मचर्य व्रत लिया तो आचार्य धर्मसागरजी स्वयं भी एक युवक को और वह भी ज्ञानमती माताजी के छोटे भाई को ब्रह्मचर्य व्रत देकर बहुत प्रसन्न हुये थे तथा नागौर में आपका शानदार जुलूस निकाला गया था ब्यावर में आर्थिका ज्ञानमतीजी के पास भी आपका भव्य स्वागत किया गया था उस समय माताजी ने अपने छोटे भाई को अपनी ही बिरादरी में सम्मिलित होते देख भविष्य की योजनायें साकार होती देखी होंगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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