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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
भगवान् महावीर की २५०० निर्वाण शताब्दी महोत्सव वर्ष में रवीन्द्रजी ने भी देहली में रहकर मुनिसंघों की सेवा करने का श्रेय प्राप्त किया। इसके पश्चात् जब जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का सारे देश में प्रवर्तन हुआ तो उसमें भी रवीन्द्रकुमारजी ने अपना प्रमुख योगदान दिया। आसाम, बिहार आदि प्रदेशों में भी जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ के निर्देशक व रवीन्दर कुमारजी रहे।
ब्र० रवीन्द्रकुमारजी सम्यग्ज्ञान पत्रिका के सम्पादक हैं तथा और भी जितने प्रकाशन त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से, वौरज्ञानोदय ग्रंथमाला की ओर से होते हैं उनका सम्पादन एवं देखरेख आप ही तो करते हैं। समाज के आपको निमंत्रण मिलते ही रहते है। जहां भी इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुप महामंडल विधान, सर्वतोभद्र विधान अथवा अन्य विधान होते हैं उनमें भी भाग लेकर आयोजकों का उत्साह बढ़ाते रहते हैं। मुनिसंघों में भी आप जाते रहते हैं। अभी जब चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा के आचार्य अजितसागरजी महाराज के समाधिमरण के पश्चात् पंचम पट्टाचार्य का प्रश्न खड़ा हुआ, समाज दो दिशाओं में बंट गया तो आर्थिका ज्ञानमती माताजी के विचारों के अनुसार उस समय आपने आचार्य श्री श्रेयांससागरजी महाराज को पंचम पट्टाचार्य बनाकर अपनी अद्भुत एवं असाधारण कर्तृत्व शक्ति का परिचय दिया। समाज के विरोध की परवाह नहीं की और माताजी ज्ञानमती के विचारों को पूर्ण समर्थन दिया। पंचम पट्टाचार्य के पश्चात् षश्चम पट्टाचार्य बनाने में भी आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
जम्बूद्वीप में पांच पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें हो गई एक प्रतिष्ठा में तो मुझे भी सम्मिलित होने का अवसर मिला था। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आपकी कार्यशैली देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई तथा इतनी बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठायें निर्विघ्न समाप्त हो सकीं। दिनरात कार्य करने पर भी कभी थकान अथवा नाराजगी नहीं दिखाई देती थी। आप निर्माण कार्य में भी पूरी पैठ रखते हैं और रात-दिन कारीगरों, मिस्त्रियों एवं इंजीनियरों में उलझे रहते हैं। आज जम्बूद्वीप समस्त देश के आकर्षण का केन्द्र बन चुका है उत्तर भारत का यह प्रसिद्ध तीर्थ बन चुका है जो प्रथम बार इसको देखता है वह ठगा सा जाता है। इन सब कार्यों के पीछे ब्र० रवीन्द्रकुमारजी का प्रमुख हाथ है, इसीलिये आपको ज्ञानमती माताजी का प्रमुख स्तम्भ मानते हैं। हम आपके यशस्वी एवं दीर्घ जीवन की मंगलकामना करते हैं।
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गणिनी आर्यिका श्री के दीक्षागुरु
आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का परिचय
महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में एक छोटे से कस्बे "ईर" नामक ग्राम में रामसुख नाम के एक योग्य चिकित्सक श्रेष्ठी रहा करते थे, उन्होंने भाग्यवती धर्मपत्नी को पाकर मानो सचमुच ही रामसुख प्राप्त कर लिया था। गंगवाल गोत्रिय ये दम्पति श्रावक कुल के शिरोमणि थे। प्रतिदिन मंदिर में जाकर देवदर्शन करना, भक्ति पूजा आदि उनके जीवन के आवश्यक अंग थे।
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- ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर
वि०सं० १९३३ ईस्वी सन् १८७६ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन माता भाग्यवती ने एक अपूर्व चाँद को जन्म दिया, जिसके आगमन की अप्रतिम प्रसन्नता ने माता की प्रसव वेदना भी समाप्त कर दी ।
होनहार इस बालक का नाम घरवालों ने मिलकर "हीरालाल " रखा। सवा महीने के बाद जब माता और बालक को लेकर सभी नगर निवासी जिन मंदिर गए, तब वहाँ भगवान् के समक्ष जैन संस्कृति के अनुसार एक पंडितजी ने बालक के कानों में णमोकारमंत्र सुनाकर सर्वसाक्षीपूर्वक अष्टमूलगुण धारण करवाया तथा ८ वर्ष तक इन मूलगुणों को पालन करवाने की जिम्मेदारी माता पर डाली। बार-बार आंखें खोलकर हीरा मानो कह रहा था कि मैं सब कुछ समझ रहा हूँ।
समय अपनी गति से बढ़ा और हीरालाल धरि-धरि १५ वर्ष के युवक हो गए। पिता के साथ व्यापार तो करते थे, किन्तु इनका चित उदासीन रहने लगा और ये अपना अधिक समय भगवान् की पूजन भक्ति एवं शास्त्र स्वाध्याय में व्यतीत करते ।
हीरालाल अब कोई नादान नहीं थे। वे परिवार की सारी स्थिति को समझ रहे थे। माता-पिता द्वारा विवाह के लिए दबाव डाले जाने पर भी उन्होंने सर्वधा मना कर दिया और अन्ततोगत्वा उन्होंने ब्रह्मचारी रूप में ही घर में रहते हुए माता-पिता की सेवा करना स्वीकार किया।
रामसुख भी अब कुछ आश्वस्त हुए कि बहू न सही किन्तु कम से कम बेटा तो हमारे जीवन का अंग बना ही रहेगा।
घर में रहकर भी हीरा अपनी चमक में निखार लाने हेतु रस परित्यागपूर्वक भोजन करना एवं शास्त्रों का मनन-चिन्तन पूर्व की अपेक्षा अधिक प्रारंभ हो गया।
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