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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
दिवस, मास और वर्ष व्यतीत होने लगे। कुछ दिनों के बाद ही रामसुखजी का स्वर्गवास हो गया। पितृवियोग के साथ-साथ कतिपय दिवसों ही माता भी स्वर्ग सिधार गई। अब हीरालाल के लिए मात्र बड़े भाई का ही संबल था।
के पत्
ज्ञानी के लिए तो सबसे प्रबल संबल उसका तत्त्वज्ञान ही होता है उसी का आधार लेकर हीरालाल ने अपनी मंजिल को अब निराबाध समझ
लिया।
वि०सं० १९७३ (सन् १९१६) में औरंगाबाद के निकट "कचनेर" नामक अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठशाला खोलकर हीरालालजी बालकों को निःशुल्क धार्मिक शिक्षण देने लगे, पुनः औरंगाबाद में भी एक विद्यालय खोलकर उन्होंने धार्मिक अध्ययन कराया। दोनों जगह इन्होंने अवैतनिक अध्ययन कराया था और उस प्रान्त में सभी के द्वारा गुरुजी कहे जाने लगे थे। यह अध्ययन कम सात वर्ष तक चला, जिसके मध्य निःस्वार्थ सेवा भाव से जनमानस के नस-नस में जैनधर्म का अंश भर दिया था।
वि०सं० १९७८ (सन् १९२१) में नांदगांव में ऐलक श्री पन्नालालजी का चातुर्मास होने वाला था। चातुमास के समाचार सुनकर हीरालाल गुरुदर्शन की लालसा से नांदगांव पहुँच गए। अब तो हीरालाल को अपनी स्वार्थसिद्धि का मानो स्वर्ण अवसर ही प्राप्त हुआ था अतः मौके का लाभ उठाते हुए आषाढ़ शुक्ला ग्यारस को ऐलक श्री पन्नालालजी के पास सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिया, पुनः नाँदग्राम के ही एक प्रसिद्ध श्रावक खुशालचंदजी को हीरालाल ने अपना साथी बना लिया अर्थात् उनके हृदय के अंकुरित वैराग्य को बौज रूप दे दिया और उन्हें भी सप्तम प्रतिमा के व्रत दे दिए।
इसी प्रकार हीरालालजी को ज्ञात हुआ कि दक्षिण के कोन्नूर ग्राम में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज नाम के एक दिगम्बर मुनि विराजमान हैं। बस, फिर क्या था, दोनों ब्रह्मचारी शीघ्र ही आचार्यश्री के पास पहुँच गए। दर्शन-वंदन करके आशीर्वाद प्राप्त किया। जिस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी के पास पुष्पदंत और भूतबलि दो शिष्य उनकी इच्छापूर्ति के लिए पहुंचे थे, उसी प्रकार मानो आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पास युगल ब्रह्मचारी उनको अविच्छिन्न परंपरा चलाने का भावी वन संजोकर पहुँचे थे। गुरुवर की कठोर तपश्चर्या और त्याग की चरम सीमा को देखकर दोनों बड़े प्रभावित हुए और उन्हीं से दीक्षा लेना निश्चित कर लिया। आचार्यश्री ने दोनों भव्यात्माओं को दूरदृष्टि से परखकर दीक्षा देना तो स्वीकार कर लिया, किन्तु एक बार घर जाकर परिवारजनों को सन्तुष्ट करके क्षमायाचनापूर्वक आज्ञा लेकर आने का आदेश दिया।
घर से वापस आने पर आचार्यदेव ने ब्रह्मचारी युगल को सर्वप्रथम श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा देने का निर्णय किया और शुभ मुहूर्त निकालावि०सं० १९८० सन् १९२३ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी का पवित्र दिवस।
हीरालाल यद्यपि मुनिदीक्षा
सर्वप्रथम धारण करना चाहते थे, किन्तु आचार्य श्री की आशनुसार शारीरिक शक्ति परीक्षण हेतु क्षुल्लव
दीक्षा में ही सन्तोष प्राप्त किया।
तभी गुरुदेव ने सभा के मध्य ब्र० हीरालाल को क्षुल्लक श्री वीरसागर और ब्र० खुशालचंद को क्षुल्लक चन्द्रसागर नाम से संबोधित किया, जिसका सभी ने जय-जयकारों के साथ स्वागत किया।
कुछ ही दिनों में वि० सं० १९८१ (सन् १९२४) में संघ समडोली ग्राम पहुँचा और वहीं वर्षायोग स्थापना हुई।
शिष्य की तीव्र अभिलाषा एवं पूर्ण योग्यता देखकर आचार्य श्री ने समोली में ही इन्हें मुनिदीक्षा प्रदान की। अब तो वीरसागरजी क्षुल्लक
से मुनि वीरसागर बन गए और मानो आज तो त्रैलोक्य की सम्पदा ही प्राप्त हो गई हो, ऐसी असीमित प्रसन्नता वीरसागरजी ने अपने जीवन में प्रथम बार प्राप्त की थी।
इसीलिए आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम शिष्य होने का परम सौभाग्य मुनि वीरसागर को ही प्राप्त हुआ ।
मुनिदीक्षा के पश्चात् आपने आचार्यसंघ के साथ दक्षिण से उत्तर तक बहुत सी तीर्थवंदना करते हुए पद विहार किया। गुरुदेव के चरणसानिध्य में अनमोल शिक्षाओं को जीवन में गांठ बांधकर आपने रखने का निर्णय किया था इसीलिए अन्त तक गुरुभक्ति का प्रवाह हृदय में प्रवाहित रहा।
आचार्यश्री के साथ आपने १२ चातुर्मास किए। उन गांवों के नाम-श्रवणबेलगोल, कुम्भोज, समडोली, बड़ी नींदनी, कटनी, मथुरा, ललितपुर, जयपुर, ब्यावर, प्रतापगढ़, उदयपुर तथा देहली।
वि०सं० १९९२ (सन् १९३५) में गुरु की आज्ञानुसार आपको अलग विहार करना पड़ा अतः गुरुवियोग के दुःख को सहन करते हुए मुनि श्री वीरसागरजी के संघ का प्रथम चातुर्मास गुजरात के ईडर शहर में हुआ। जहाँ अपूर्व धर्मप्रभावना हुई ।
वि०सं० २००० में आप खाते गाँव चातुर्मास करके सिद्धवरकूट क्षेत्र पधारे। दो चक्री दशकामकुमारों की निर्वाणभूमि के उस पवित्र स्थल पर औरंगाबाद के अन्तर्गत अड़गाँव निवासी खंडेलवाल जाति में जन्म लेने वाले वका गोत्रीय श्रावक हीरालाल को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की और उनका शिवसागर नाम रखा।
शिष्य परंपरा की श्रंखला में वीरसागरजी के मुनियों में प्रथम शिष्य शिवसागर हा बने, जो भविष्य में गुरु के पट्टाचार्य पद को सुशोभित
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