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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३३९ कर संघ संचालन का श्रेय प्राप्त कर चुके हैं। बीस वर्षों के लम्बे अन्तराल के पश्चात् सन् १९५५ में कुंथलगिरी क्षेत्र पर आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने चातुर्मास किया था; इधर वीरसागर महाराज अपने चतुर्विध संघ सहित जयपुर खानियों में चातुर्मास कर रहे थे। हजारों मील की यह दूरी भी गुरु शिष्य के परिणामों का मिलन करा रही थी। आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य यमसल्लेखना ग्रहण कर ली थी। इस समाचार से उनके समस्त शिष्यों एवं सम्पूर्ण जैन समाज के ऊपर एक वज्र-प्रहार-सा प्रतीत होने लगा था। कुंथलगिरी में प्रतिदिन हजारों व्यक्ति इस महान् आत्मा के दर्शन हेतु आ-जा रहे थे। सल्लेखना की पूर्वबेला में ही आचार्य श्री ने अपना आचार्यपद त्याग कर दिया और तत्कालीन संघपति श्रावक श्री गेंदनमलजी जौहरी बम्बई वालों से एक पत्र लिखवाया। अपने प्रथम शिष्य मुनि श्री वीरसागरजी महाराज को सर्वथा आचार्य पद के योग्य समझकर एक आदेश पत्र जयपुर समाज के नाम लिखवाकर भेजा। यहाँ पर समयोचित ज्यों की त्यों वे दोनों पत्र दिये जा रहे हैं। आचार्य श्री द्वारा लिखाया गया समाज को पत्र कुन्थलगिरी, ता० २४-८-५५ स्वस्ति श्री सकल दिगम्बर जैन पंचान जयपुर धर्मस्नेहपूर्वक जुहारू । अपरंच आज प्रभात में चारित्रचक्रवर्ती १०८ परमपूज्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री १०८ मुनि वीरसागरजी महाराज को आचार्यपद प्रदान करने की घोषणा कर दी है। अतः उस आचार्यपद प्रदान करने की नकल साथ भेज रहे हैं। उसे चुतर्विध संघ को एकत्रित कर सुना देना। विशेष आचार्य महाराज ने यह भी आज्ञा दी है कि आज से धार्मिक समाज को इन्हें श्री वीरसागर जी महाराज को आचार्य मानकर इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। लि. गेंदनमल, बम्बई लि० चन्दूलाल ज्योतिचंद बारामती आचार्य पद प्रदान का समारोह दिवस भाद्रपद कृष्णा सप्तमी गुरुवार निश्चय किया गया था। विशाल प्रांगण में सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री वीरसागर मुनिराज को गुरुवर द्वारा दिया गया आचार्य पद प्रदान किया गया था। उस समय पंडित इंद्रलालजी शास्त्री ने गुरुदेव द्वारा भिजवाये गये आचार्य पद प्रदान पत्र को सभा में पढ़कर सुनाया, जो कि निम्न प्रकार है कुन्थलगिरी ता० २४-८-५५ स्वस्ति श्री चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की आज्ञानुसार यह आचार्य पद प्रदान पत्र लिखा जाता है हमने प्रथम भाद्रपद कृष्णा ११ रविवार ता० २४-८-५५ से सल्लेखना व्रत लिया है। अतः दिगम्बर जैन धर्म और श्रीकुन्दकुन्दाचार्य परंपरागत दिगंबर जैन आम्नाय के निर्दोष एवं अखण्डरीत्या संरक्षण तथा संवर्द्धन के लिए हम आचार्य पद अपने प्रथम निम्रन्थ शिष्य श्रीवीरसागरजी मुनिराज को आशीर्वादपूर्वक आज प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् दो हजार बारह बुधवार के प्रभात के समय त्रियोग शुद्धिपूर्वक संतोष से प्रदान करते हैं। आचार्य महाराज ने श्री पूज्य वीरसागरजी महाराज के लिए इस प्रकार आदेश दिया है। इस पद को ग्रहण करके तुमको दिगम्बर जैनधर्म तथा चतुर्विध संघ का आगमानुसार संरक्षण तथा संर्वधन करना चाहिए। ऐसी आचार्य महाराज की आज्ञा है। आचार्य महाराज ने आपको शुभ आशीर्वाद कहा है। इति वर्धताम् जिनशासनम्। लिखी- गेंदनमल बम्बई- त्रिबार नमोस्तु लिखी- चंदूलाल ज्योतिचंद बारामती- त्रिबार नमोस्तु उपर्युक्त आचार्य पद प्रदान पत्र पढ़ने के बाद श्री शिवसागरजी मुनिराज ने उठकर पूज्य श्री आचार्य शांतिसागरजी द्वारा भेजे गए पिच्छी कमण्डलु भी श्री पूज्य वीरसागरजी मुनिराज के करकमलों में प्रदान किया। सर्वत्र सभा में आचार्य श्री वीरसागर महाराज की जयकार गूंज उठी। इसके पूर्व श्री वीरसागर महाराज ने कभी भी अपने को आचार्य शब्द से संबोधित नहीं करने दिया था, यह उनकी पद निर्लोभता का ही प्रतीक था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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