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________________ ३४०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला - बन्धुओं ! यह भवितव्य और गुरुभक्ति का ही चमत्कार है वर्ना कौन जानता था कि छोटे से गांव में जन्मा एक बालक हम सबका मार्गदर्शक आचार्य बन जाएगा। यदि आज के दिन इनके माता-पिता जीवित होते तो उन्हें कैसी अलौकिक प्रसन्नता होती- अपने पुत्र को जगवंद्य पद में देखकर। इस खुशी का अनमान प्रत्येक माता-पिता अपने योग्य पुत्र की उन्नति से प्राप्त कर सकते हैं। माता-पिता के स्थान पर आज अग्रज गुलाबचंद जो भाई के मोह में विह्वल थे, उन्होंने उस भ्राता को अपना भी पूज्य गुरुदेव मानकर शेष जीवन का कल्याण उन्हीं के चरणसानिध्य में करने का निश्चय किया था। अब आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज अपनी गुरुपरंपरा के आधार पर अपने चुतर्विध संघ का संचालन करने लगे। वर्तमान की पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने क्षुल्लिका वीरमतीजी की अवस्था में क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ सन् १९५४ के दिसंबर महीने में “चाकसू" राजस्थान में आचार्य श्री वीरसागर महाराज के प्रथम दर्शन किए थे। पुनः चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की आज्ञा से उनकी समाधि के पश्चात् वे आचार्य श्री वीरसागर महाराज के संघ में ही पहुंच गई और सन् १९५६ की वैशाख शुक्ला दूज के दिन "माधोराजपुरा" राजस्थान में आचार्यश्री ने उन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ज्ञानमती नाम से सम्बोधित किया। उन्होंने अपनी इस नवदीक्षित शिष्या के अन्दर जाने कितने गुण अपनी रत्नपारखी दृष्टि से देख लिए थे। इसीलिए इन्हें एक लघु सम्बोधन मात्र प्रदान किया था- "ज्ञानमती ! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है, उसका ध्यान रखना।" इसके साथ उन्होंने एक आज्ञा भी प्रदान की थी कि "तुम अपने आर्यिका संघ सहित अलग विहार करना और शिष्याओं को संग्रह करना और उन्हें प्रायश्चित आदि भी स्वयं देना।" अपने जीवनकाल में ही आचार्य श्री ने इन्हें पृथक् विहार भी कराया और उनके द्वारा हुई धर्मप्रभावना सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। आज गुरुदेव के वे शब्द पूज्य माताजी के जीवन में पूर्णतया फलित हो रहे हैं। ___ आचार्य श्री वीरसागर महाराज मितभाषी एवं संघस्थ शिष्यों के अनुग्रह में माता-पिता की भूमिका निभाने में कुशल एक प्रौढ़ संघनायक थे। गांव-गांव, नगर-नगर में विहार करते हुए आचार्य श्री ने जब अनेकों स्थान पर सदियों से चली आ रही हिंसक बलि परम्परा को देखा, तब उन्होंने अनेक युक्तियों से पंच पापों के दर्दनाक वर्णनपूर्वक अपने उपदेशों से बलिप्रथा बन्द करवाई। ___ आचार्य श्री द्वारा दीक्षित शिष्यों की नामावली इस प्रकार है- मुनि श्री शिवसागरजी, मुनि श्री धर्मसागरजी, मुनि श्री सुमतिसागरजी, मुनि श्री पद्मसागरजी, मुनि श्री जयसागरजी, मुनिश्री सन्मतिसागरजी, मुनि श्री श्रुतसागरजी, ऐलक श्री अजितसागरजी, क्षु० श्री सिद्धसागरजी, क्षु० श्री सुमतिसागरजी, आर्यिकाश्री वीरमतीजी, आर्यिका श्री कुंथुमतीजी, आ०श्री सुमतिमतीजी, आ० श्री पार्श्वमतीजी, आ० श्री विमलमतीजी, आ० श्री शान्तिमतीजी, आ० श्री इन्दुमतीजी, आ० श्री सिद्धमतीजी, आ० श्री वासमतीजी, आ० श्री ज्ञानमतीजी, आ० श्री सुपार्श्वमतीजी, क्षुल्लिका श्री गुणमतीजी, क्षुल्लिका श्री चन्द्रमतीजी, क्षुल्लिका श्री जिनमतीजी, क्षुल्लिका श्री पद्मावतीजी। वर्तमान युगानुसार उस समय दिगम्बरजैन साधुओं के अलग-अलग संघ नहीं थे और न उनकी कोई भिन्न-भिन्न परम्पराएं थीं, किन्तु सारे हिन्दुस्तान में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की आदर्श परम्परा वाला “आचार्यश्री वीरसागर महाराज" का संघ ही कहा जाता था। सम्पूर्ण अनुशासन पट्टाधीश आचार्य का ही चलता था, जिसका पालन आज तक भी उस पट्ट परम्परा वाले संघ में हो रहा है। उन आगमिक परम्पराओं एवं अनुशासन से संचालित संघ का वर्तमान में परमपूज्य १०८ आचार्य श्री अभिनन्दनसागर महाराज छठे पट्टाचार्य के रूप में नेतृत्व कर रहे हैं। आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने अपने चतुर्विध संघ सहित सन् १९५७ का चातुर्मास जयपुर खानियां में किया। उस चातुर्मास के मध्य आपका शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त क्षीण होने लगा और आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन महामंत्र का स्मरण करते हुए पद्मासन पूर्वक ध्यानस्थ मुद्रा में नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। आज उन महामना आचार्यश्री का भौतिक शरीर हमारे बीच में नहीं है किन्तु उनकी अमूल्य शिक्षाएं विद्यमान हैं। उन पर अमल करते हुए हमें अपने जीवन को समुन्नत बनाना चाहिए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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