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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
सदहागा।
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अभिपभूयं ।
जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ उन्होंने उस ज्ञानामृत को भव्य जीवों हेतु करुणाकर प्रस्तुत किया है। नियमसार उनके अध्यात्म का सुस्पष्ट नियामक है, नियम से उपयोगी है। नियमसार के अध्यात्म-अमृत को काव्यकलशों में भरते हुए आ० पद्मप्रभ मलधारीदेव ने संस्कृत भाषा गद्य टीका रूप में प्रकट किया है।
प० पू० ज्ञानमती माताजी ने सम्यक् रीत्या अध्यात्मामृत का मन्थन कर इस महान् ग्रन्थराज की हिन्दी भाषा टीका की रचना की है, जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में उन्होंने उद्गार व्यक्त किए हैं।
__वर्तमान में ग्रन्थ प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी एकान्तिक एवं पूर्वाग्रह युक्त मान्यताओं की पुष्टि करने हेतु मूल, टीका, भावार्थ और टिप्पणी आदि में अर्थ को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का फैशन-सा आ गया है, यह वस्तुतः चिन्ता का विषय है। ऐसे प्रकाशनों की विसंगतियों के विषय में प्रबुद्धजन समाज को सदैव सावधान करते आ रहे हैं। परमपूज्य माताजी ने नियमसार की पूर्व टीकाओं का सावधानी से अवलोकन कर उपयोगी जानकर व्याकरण भाषा की दृष्टि से शुद्ध व सामान्य जनोपयोगी हिन्दी भाषा में यह महान् कृति समाज को प्रदान की है। उपर्युक्त अमूल्य निधि मेरी दृष्टि के समक्ष विद्यमान है। यह आचार्य कुन्दकुन्द और पद्मप्रभदेव के मन्तव्य को यथावत् प्रकट करती है। माताजी ने अन्य स्थान से प्रकाशित टीका के गाथा नं. ३ के उद्धरण द्वारा उसकी विसंगति का उल्लेख किया है वह ठीक ही है। मैंने भी उस टीका में अनेक स्थलों पर जानबूझ कर किए गए अर्थ के अनर्थ को समझा है। ऐसी स्थिति में माताजी की टीका दर्पणवत् उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रारम्भ में मुद्रित 'आद्य उपोद्घात्' में प० पू० माताजी ने नियमसार की उपयोगी गाथाओं को विषयवार पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। यदि पूर्व में ही ध्यानपूर्वक इसका पारायण कर लिया जावे तो नियमसार का हार्द समझने में सरलता होगी। इसमें माताजी ने कुछ गाथाओं यथा अरसमरूवमगंध... आदि का एकाधिक ग्रन्थों में उपलब्ध होने का उल्लेख किया है वह भी पाठकों को कुन्दकुन्द स्वामी के गुण को आत्मसात् करने में लाभदायक होगा।
। प्रस्तुत ग्रन्थ में डा० पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा लिखित प्रस्तावना अवश्यमेव पठनीय है। पं० जी जैन जगत् के लब्ध प्रतिष्ठ वरिष्ठ विद्वान् हैं। उन्होंने इसमें नियमसार जी के १२ अधिकारों की विषयवस्तु का विवेचन कर अध्ययन को गति प्रदान की है। मूलगाथा-पाठान्तरों की चर्चा भी करके जिज्ञासा-वर्द्धन किया है। उन्होंने प० पू० माताजी के श्लाघ्य प्रयास का समुचित मूल्यांकन किया है।
'नियमसार' की विषयवस्तु नियम से करने योग्य व्यवहार एवं निश्चय दोनों रूपों अर्थात् साधन-साध्य रूप में मान्य दर्शन-ज्ञान चारित्र हैं। इनका प्रामाणिक व्याख्यान अव्रती के बजाय व्रती के मुख से होना शोभनीय व प्रभावनीय होता है। माताजी को इसका श्रेय है। प्रस्तुत टीका ग्रन्थ में उन्होंने २७ ग्रन्थों से सहायता ली है व यथास्थान उनका उपयोग किया है। वह उनकी ज्ञान गरिमा व अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, जो तप एवं त्याग की सीमा में अक्षुण्ण रहता है, को प्रकट करता है। माताजी ने संस्कृत टीकाकार आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव के कलशों का स्वरचित पद्यानुवाद भी समाविष्ट किया है। यह अत्यन्त रुचिवर्द्धक है। अन्वयार्थ, शब्दाथ व भावार्थ सुबोध शैली में लिखे गए हैं। ___ ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही माताजी ने अपने अगाध संस्कृत ज्ञान के बल से ग्रन्थराज के प्रति भक्ति को प्रकट करते हुए स्वरचित नियमसार वन्दना प्रस्तुत की है। इसने ग्रन्थ में चार चाँद लगा दिए हैं। एक पद्य देखिए
नयद्वयात्मकं तत्त्वं स्वात्मानन्दैकनिर्भरं ।
अनन्त दर्शन ज्ञान सौख्यवीर्यात्मकं ध्रुवम् ॥ मैं प० पू० माता जी के प्रखर पाडित्य पर सभक्ति गद्गद हूँ।
ग्रन्थ के अंत में परिशिष्ट में महत्त्वपूर्ण ३७ गाथायें व २४ श्लोक मुद्रित हैं। यह संकलन कर्ताओं के हेतु बड़ी सुविधा है। ग्रन्थ में मुद्रण शुद्धि का यथासंभव ध्यान रखा गया है। गेटअप, कागज, बाह्य परिवेश आदि सभी श्रेष्ठतर हैं। गाथा सूची, श्लोक सूची उद्धृत श्लोकों की वर्णानुक्रम सूची एवं शुद्धि पत्रक भी समाविष्ट किए हैं जिनसे संदर्भ ज्ञात करने में सुविधा होती है। पृष्ठ संख्या ५३० है। यह ग्रन्थ अवश्य पठनीय एवं संग्रहणीय है। त्रिलोक शोध संस्थान अपने आप में इस प्रकाशन हेतु धन्यवादाह है। अंत में मैं प० पू० माताजी को बहुमानपूर्वक नमन करता हूँ।
नियमस्य मातृभाषायां रचितेयं मधुरा कृतिः । जयेत् लोके चिरं तावत् यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥
[इत्यलम्]
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