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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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नियमसार पद्यावली
समीक्षक- डॉ० कमलेश कुमार जैन, वाराणसी
आचार्य कुन्दकुन्द की शौरसेनी प्राकृत आगम परम्परा-दिगम्बर जैन परम्परा में मूर्धन्य स्थान है। तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के बाद, उनकी आचार्य परम्परा में कुन्दकुन्द संभवतः प्रथम ऐसे चिन्तक मनीषी हैं, जिन्होंने तत्त्व, अध्यात्म-योग, चारित्र-आचार एवं ज्ञान-प्रमाण विषयक सिद्धान्तों की सूक्ष्म, व्यवस्थित, विस्तृत तथा हृदयग्राही विवेचना प्रस्तुत की है। ऐसी चर्चा अन्यत्र देखने को प्राप्त नहीं होती।
णियमसारो (नियमसार) आचार्य कुन्दकुन्द की अध्यात्मप्रधान महत्त्वपूर्ण कृति है तथा उनकी प्रमुख रचनाओं में से एक है। कुन्दकुन्द ने प्रमुख रूप से इसमें श्रमणाचार अर्थात् मुनि के चारित्र का निश्चय और व्यवहार दोनों आधारों पर विवेचन किया है। उपलब्ध ग्रन्थ का परिमाण एक सौ सतासी प्राकृत-गाथा मात्र है।
नियमसार कुन्दकुन्द की अन्य प्रमुख रचनाओं-पंचत्थियसंगहो (पंचास्तिकायसंग्रह) पवयणसारो (प्रवचनसार) एवं समयपाहुड़ (समयसार) की तुलना में सरल रचना है। नियमसार में विभिन्न परिभाषाएं सरल तथा सीधे शब्दों में प्रतिपादित की गई हैं। अनेक परिभाषाएँ सर्वथा नवीन प्रतीत होती हैं। जिनमें स्वाभाविक सरल भाषा एवं शैली का प्रयोग हुआ है। ग्रन्थकर्ता आचार्य से पग-पग पर सावधान किया है कि
यह बात मैंने निश्चयनय के आधार पर कही है और यह बात व्यवहारनय की अपेक्षा से। अथवा, अमुक क्रियायें व्यवहारगत क्रियायें हैं तथा अमुक स्थिति निश्चयनयाश्रित है।
नियमसार पर पद्मप्रभमलधारिदेव कृत तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका है। यह टीका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, जो कि गद्य-पद्यमय शैली में लिखी गयी है। और कुन्दकुन्द के प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रन्थों पर अमृतचन्द्रसूरि द्वारा लिखित टीका की पद्धति पर लिखी गई प्रतीत होती है। टीकाकार ने नियमसार की गाथा १८६ की टीका में इसे परमागम, परमेश्वर शास्त्र एवं भागवत् शास्त्र आदि संज्ञाएँ दी हैं।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी यथानाम तथागुण विदुषी साधिका हैं। उन्होंने साहित्यजगत् को अनेकानेक मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं और कई महान् ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया है। नियमसार पर ही उन्होंने स्याद्वाद चन्द्रिका' नामक स्वतंत्र एवं महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीका का प्रणयन किया है।
नियमसार-पद्यावली माताजी द्वारा नियमसार की प्राकृत गाथाओं का हिन्दी गद्य-पद्यमय काव्यानुवाद-भावानुवाद है। जिसकी भाषा सरल एवं मधुर है। इस पद्यानुवाद में वसंततिलका, रोला, शंभु, स्रग्विणी, नरेन्द्र, गीता एवं चाल आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है। इस छंदविधान के कारण अनुवाद में अर्थ सुगमता, सरलता एवं भावपूर्णता आ गयी है। प्रत्येक अधिकार के अन्त में उसका सारांश किया गया है। साथ ही साथ उनके ऐसे प्रसंगों का सयुक्तिक एवं सप्रमाण स्पष्टीकरण किया है, जिनके आधार पर अपने एकान्तमय पक्ष के पोषण हेतु बलात् ग्रन्थ के हार्द से विपरीत उसकी व्याख्यायें कर ली जाती हैं। माताजी ने इस पद्यानुवाद में कुन्दकुन्द के अभिप्राय को स्पष्ट करने का समुचित प्रयास किया है और उनके निश्चय तथा व्यवहारनय के आधार पर विवेचित विषयों का पद्यमय संतुलित व्याख्यान किया है।
मूलग्रन्थ में यद्यपि अधिकार आदि के रूप में कोई विभाजन नहीं है। माताजी ने नियमसार पद्यावली को अधिकारों में वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण संस्कृत टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ने प्रारंभ किया है।
ग्रन्थारंभ में ग्रंथकर्ता आचार्य ने वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके केवली और श्रुतकेवली द्वारा प्रणीत नियमसार को कहने की प्रतिज्ञा की है। नियम पद की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि जो नियम से करने योग्य है, वह नियम है। वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। आगे कहते हैं कि विपरीत का परिहार करने के लिए ही 'सार' पद का ग्रहण किया गया है। यहाँ विपरीत से परिहार का अर्थ संशय, विमोह और विभ्रम से रहित होना है, (गाथा ५१) न कि व्यवहार रत्नत्रय का परिहार । मूल गाथा इस प्रकार है
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं ।
विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥३॥ इस गाथा का सरल तथा स्पष्ट हिन्दी पद्यानुवाद करते हुए माताजी कहती हैंशेरछंद
जो करने योग्य है नियम से वोहि नियम है।
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