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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५८५ आचार्यश्री का अगाध धर्मप्रेम देखकर उस समय ईसरी बाजार की जनता भाव-विभोर हो उठी, जब ज्योतिरथ की प्रवचन सभा में उन्होंने आधा घंटे तक मार्मिक प्रवचन किया और ज्योति रथ की शोभायात्रा के साथ-साथ घंटों अपने संघ सहित चलते रहे। यह तो मुनिश्री का धार्मिक वात्सल्य ही कहना होगा। कवियों की उक्ति यहीं पर चरितार्थ हो जाती है-"न धर्मो धार्मिकैर्विना" अर्थात् धार्मिकों के बिना धर्म कैसे टिक सकता है ? ____ हालाँकि युवाचार्यजी से प्रभावित जनता एवं सामाजिक नेताओं ने पहले से यह शोर मचा रखा था कि आचार्य विद्यासागर महाराज तो जुलूस आदिकों में शामिल नहीं होते हैं; अतः उनसे निवेदन ही नहीं करना चाहिए, लेकिन ब्र. रवींद्रजी ने ज्यों ही ज्ञानज्योति आगमन की उन्हें सूचना प्रदान की, त्यों ही आचार्यश्री ने मुस्कराहट बिखेर कर उनकी भावनाओं को प्रफुल्लित किया तथा कार्यक्रम की रूपरेखा समझकर यथासमय अपने संघ सहित समस्त कार्यक्रमों में उपस्थित होकर ज्ञानज्योति प्रवर्तन के लिए अपना आशीर्वाद प्रदान किया। ईसरी बाजार (बिहार) में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की भव्य शोभायात्रा में आचार्य आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ज्योतिरथ क माडल का अवलोकन करते हुए। श्री विद्यासागर महाराज दरअसल जन साधुआ का वास्तावकता ता इसा म दृष्टिगत होती है कि वे वाह्यजगत् से वीतराग रहें और धर्मभावना तथा आत्मप्रभावना के कार्यों में सदैव सजग रहें। जैसा कि आचार्यश्री अमृतचंद्र सूरि ने "पुरुषार्थसिद्धि उपाय" ग्रंथ में कहा भी है-- आत्मा प्रभावनीयो, रत्नत्रयतेजसा सततमेव। दानतपोजिनपूजा, विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ इन्हीं पंक्तियों का अनुसरण करते हुए जहाँ-जहाँ जो भी साधुसंघ विराज रहे थे, उन सभी ने ज्ञानज्योति रथ को अन्तर्दिल से अपना सानिध्य एवं आशीर्वाद प्रदान किया था। यहाँ यह विषय ज्ञातव्य है कि आज जैन साधु जगत् में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज एवं गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ज्ञान और चारित्र के धुर्य माने जाते हैं। यह एक अद्भुत संयोग ही कहना होगा कि इन दोनों ही विभूतियों का जन्म शरद् पूर्णिमा को हुआ है। जहाँ ईसवी सन् १९३४ की शरद् पूर्णिमा ने ज्ञानमती माताजी को मैना के रूप में प्रदान किया, वहीं सन् १९४८ की आश्विन शु. पूर्णिमा को दक्षिण भारत ने विद्यासागरजी की प्रतिकृति लेकर विद्याधर को उत्पन्न किया। दोनों के पारिवारिक त्याग का सामंजस्य भी प्राप्त हुआवर्तमान युग से २०-२२ वर्ष पूर्व जहाँ साधु समाज में ज्ञानमती माताजी का एक मात्र नाम लिया जाता था कि इन्होंने अपने परिवार के अनेक सदस्यों को त्यागमार्ग में प्रवर्तित किया है। कोई-कोई तो यहाँ तक कह देते हैं कि माताजी का पूरा परिवार ही साधु बन गया है, किन्तु यह तो उनकी अनभिज्ञता ही माननी पड़ेगी; क्योंकि वास्तविकता तो यह है कि उनके परिवार में भाई-बहनों के मात्र एक तिहाई हिस्से ने त्याग मार्ग अंगीकार किया है, शेष भाई-बहन गृहस्थाश्रम का संचालन कर रहे हैं। इसी प्रकार से लगभग १५ वर्षों से आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का द्वितीय परिवार भी समाज की दृष्टि में आया है, जिसमें माता-पिता एवं भाइयों ने दीक्षा धारण कर वैराग्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। इन दो उदाहरणों ने ज्ञान और चारित्र का पारस्परिक सामंजस्य बनाकर उत्तर-दक्षिण के सेतुबंध का कार्य किया है। शरद पूर्णिमा के ये दोनों चाँद आकाश और धरती दोनों को आलोकित करते हुए चिरकाल तक इस धरातल पर विद्यमान रहें, यही जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी इस शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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