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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
महाराज की शिष्या हैं और विद्यासागर महाराज द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री शिवसागर महाराज के शिष्य आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज के दीक्षित शिष्य हैं।
उपर्युक्त संक्षिप्त परिचय तो मात्र पाठकों की दृष्टि इन दो महान् आत्माओं के पवित्र जीवन पर केन्द्रित करने एवं उनसे कुछ शिक्षा लेने हेतु ही दिया गया है। इनका वास्तविक विस्तृत परिचय तो साक्षात् दर्शन एवं जीवन्त कृतियों से प्राप्त किया जा सकता है।
"रत्नत्रय के प्रतीक साधुसंघों का सानिध्य किसी भी कार्यक्रम को संबल प्रदान करता ही है" यह तो जनमानस के अनुभव एवं श्रद्धा की बात है। साधुवर्ग हमारे संसार का सदैव प्रेरणास्रोत रहा है, यदि उनमें धार्मिक आयोजनों के प्रति प्रसन्नता एवं उदारता नहीं होगी, तब धर्म का उत्थान भला कैसे संभव हो सकता है? झरिया में झरना बहा ज्ञानामृत का५ अप्रैल, १९८३ को ही बिहार प्रान्त के झरिया नगर में ज्ञानज्योति रथ ने प्रवेश किया। यहाँ के निवासी श्री पूनमचंदजी गंगवाल के सहयोग से जहाँ आर्थिक दृष्टि से बिहार प्रान्त में यहाँ का सबसे अच्छा नम्बर रहा, वहीं झरिया के इतिहास में ज्योतियात्रा का भी भव्य कार्यक्रम रहा।
हजारों व्यक्तियों की जीमन व्यवस्था ने प्रीतिभोज का रूप धारण कर पारस्परिक प्रेम को सुदृढ़ बनाया। श्री गौरीशंकरजी अग्रवाल की अध्यक्षता में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में श्री महावीर प्रसाद पाटनी, ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन, मालती शास्त्री आदि वक्ताओं के ओजस्वी भाषण हुए।
अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री अग्रवालजी ने इस देशप्रेम एवं सामाजिक संगठन को मजबूत बनाने वाली ज्योति यात्रा की प्रशंसा करते हुए इसे अहिंसा तथा चरित्र-निर्माण का उद्घोषक बताया तथा अपने को सौभाग्यशाली मानते हुए उन्होंने समस्त जनसमूह एवं कार्यकर्ताओं को धन्यवाद दिया। धनबाद का धन और वचन अनमोल रहाअपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार बिहार प्रान्तीय ज्योतिप्रवर्तन समिति के पदाधिकारीगण रथ के साथ-साथ अनेक स्थान पर उपस्थित होते थे। उनके इस सक्रिय सहयोग से सभी जगह कार्यक्रम उत्साहपूर्वक सम्पन्न हुए। इसी श्रृंखला में दिनांक ६ अप्रैल को ऐतिहासिक ज्ञानज्योति धनबाद शहर में पहुंच गई।
यहाँ भूतपूर्व मंत्री श्री योगेश कुमारजी योगेश के मुख्य आतिथ्य में एक आम सभा की गई, जिसमें अन्य वक्ताओं के अतिरिक्त मंत्री महोदय ने दिगम्बर जैन साधुओं के प्रति अत्यंत श्रद्धा व्यक्त करते हुए दिगम्बरत्व की अतिसूक्ष्म परिभाषा प्रस्तुत की, जिसे सुनकर समाज के उपस्थित लोग चकित रह गये।
आपने अनेक उदाहरणों के माध्यम से दिगम्बरत्व की महिमा का दिग्दर्शन कराया तथा यह भी कहा कि दिगम्बर जैन धर्म और दिगम्बर जैन साधु समस्त आदर्शों से बहुत ऊँचे हैं . . . . . इत्यादि।
आगे कतरासगढ़ होती हुई ज्ञानज्योति का "महेशपुर खरखरी" में मंगल पदार्पण हुआ, जहाँ श्री शिखरचंदजी जैन के कुशल नेतृत्व में ज्योतिरथ का भव्य स्वागत हुआ। जुलूस, आरती आदि के द्वारा समस्त जनसमूह ने अपनी श्रद्धांजलि, अर्थांजलि भेंट की। कलाकेन्द्र में कला का मूल्यांकन"बोकारो स्टीलसिटी' में कलाकेन्द्र नामक सभागार में आयोजित ज्ञानज्योति की स्वागत सभा का समापन होते ही समस्त जनसमूह ज्ञानमती माताजी की अभूतपूर्व कला का अवलोकन करने उमड़ पड़ा।
ज्ञानज्योति रथ के दर्शनमात्र से सभी इतने प्रसन्न हुए, मानो उन्हें साक्षात् ज्ञानमती माताजी के ही दर्शन हो गए हों। देखने लायक स्थिति तो तब होती थी, जब समारोह में कहीं पर मालती शास्त्री अथवा माधुरी शास्त्री (मैं) पहुँच जाती, तब तो लोग उन्हीं को ज्ञानमती माताजी समझकर दर्शनार्थ दौड़ पड़ते।
भक्ति में मानव सब कुछ भूल जाता है, उन्हें उस समय यह भी ज्ञान न रहता था कि पिच्छीधारी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी तो पद विहार करती हैं, वे भला इस रथ की गाड़ी में कैसे आ सकती हैं ? अतः संचालकों को जनता के बीच स्थिति स्पष्ट करनी पड़ती थी कि ज्ञानमती माताजी के दर्शन हेतु आपको हस्तिनापुर जाना पड़ेगा। (क्योंकि उन दिनों पूज्य माताजी संघ सहित हस्तिनापुर में विराजमान थीं) यहाँ पधारी हुई संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनें हैं। आर्यिका माता वाहन में नहीं चलतीं, वे पदविहार करती हैं . . . . इत्यादि।
कुछ भी हो, हिन्दुस्तान की जनता उस समय ज्ञानमती माताजी के लिए असंख्य मंगल-कामनाएं प्रदर्शित करती हुई थकती नहीं थी; क्योंकि अपने समाज की ही एक नारी का यह चरमोत्कर्ष देखकर अब धरती माता की प्रसन्नता भीतर नहीं समा रही थी और वह अपने अंचल में पली सरस्वती की प्रतिकृति को कोटि-कोटि दुआएं प्रदान कर रही थी।
इधर ख्याति, लाभ, पूजा की इच्छा से कोसों दूर ज्ञानमती माताजी हस्तिनापुर में शिष्य-शिष्याओं के पठन-पाठन तथा नियमसार ग्रंथ की "स्याद्वाद
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