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________________ सम्पादकीय णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ हम सभी प्रतिदिन णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठियों का स्मरण करते हैं। इस पंचमकाल में इन पांच परमेष्ठियों में अहंत, सिद्ध दो परमेष्ठियों के दर्शन तो दुर्लभ ही हैं फिर भी शेष तीन परमेष्ठी आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं के दर्शन आज सुलभ हो रहे हैं। आज से ७०-८० वर्ष पूर्व तो इन परमेष्ठियों के दर्शन भी दुर्लभ थे, लेकिन इस बीसवीं सदी का परम सौभाग्य मानना चाहिये जो चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने इस भू पर जन्म लेकर मुनिमार्ग को प्रशस्त किया और अपनी आगमानुकूल निर्दोष चर्या के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि इस पंचमकाल में भी दिगंबर मुनि हो सकते हैं। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की कृपा प्रसाद से वर्तमान में लगभग २०० दिगंबर मुनि विराजमान हैं जो कि चलते-फिरते तीर्थ के समान नगर-नगर में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। सौ वर्ष पूर्व के विद्वान् लोग तो मुनियों के वर्णन को केवल पुराणों, ग्रंथों में पढ़कर अपनी पुस्तकों में लिख गये कि दिगंबर मुनिराज की चर्या ऐसी होती है। लेकिन आज तो ये तीनों परमेष्ठी २८ मूलगुणों का पालन करते हुए आत्मसाधना में लगे हुये हैं। जिस प्रकार दिगंबर मुनिराज २८ मूलगुणों का पालन कर मोक्षमार्ग में अग्रसर हैं उसी प्रकार महिलाओं में आर्यिकाओं का स्थान है। गणिनी आर्यिकायें आचार्यों के समान पूज्य हैं एवं शिक्षा-दीक्षा देकर अपने संघों का संचालन कर सकती हैं। पहले भी किया था और आज भी उसी के अनुरूप आर्यिका संघ भारतवर्ष में यत्र-तत्र विचरण कर रहे हैं। आर्यिकायें २८ मूलगुणों का पालन करती हैं। मात्र अंतर इतना है कि मुनियों को खड़े होकर आहार लेना मूलगुण है, तो उसके स्थान पर आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना यही मूलगुण माना गया है। तथा मुनिजन नग्न दिगंबर रहते हैं यह उनका मूलगुण है, लेकिन आर्यिकाओं को एक श्वेत साड़ी पहनना यह मूलगुण माना गया है। इसलिये २८ मूलगुणों का पालन करती हुई आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती माना गया है। हमें यह लिखते हुये गौरव होता है कि जिस प्रकार इस शताब्दी के आचार्यों में धर्मप्रभावना एवं निर्दोष मुनिमार्ग का प्रणयन आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने किया उसी प्रकार आर्यिकाओं का पथप्रशस्त करने वाली, निर्दोष चर्या का पालन करने वाली तथा धर्म की प्रभावना करने वाली गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने कार्य किया है। आप इस शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी साध्वी हैं। चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की शिष्या हैं। आपके द्वारा इस शताब्दी में जो कार्य हये हैं उन्हें आने वाली अनेक शताब्दियों तक जैन समाज भूल नहीं सकेगा। __ आपकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भगवान् महावीर स्वामी के पश्चात् विगत् २५०० वर्ष में जो कार्य किसी आर्यिका के द्वारा नहीं हुआ था वह कार्य आपने करके दिखाया, वह कार्य है ग्रंथ लेखन का । आज ग्रंथ भंडारों में जितना भी साहित्य उपलब्ध है वह आचार्यों द्वारा, भट्टारकों द्वारा एवं विद्वानों द्वारा लिखित प्राप्त होता है। लेकिन आर्यिकाओं द्वारा लिखित कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता था। इस शताब्दी में सर्वप्रथम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने लेखनी चलाई। उसके बाद तो परंपरा चल पड़ी है जिससे अन्य विदुषी आर्यिकायें भी इस मार्ग का अनुशरण करने लग गई हैं। पूजन विधानों में तो पूज्य माताजी ने समाज में एक क्रांति उत्पन्न कर दी है। आज जिधर देखो उधर इन्द्रध्वज विधान हो रहे हैं, कहीं कल्पद्रुम मंडल विधान हो रहा है, कहीं सर्वतोभद्र मंडल विधान का आयोजन और कहीं जम्बूद्वीप विधान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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