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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला 1 माताजी की इच्छा व आज्ञानुसार मोतीचंदजी हस्तिनापुर के आस-पास की भूमियों को देखने लगे। अब उनके साथ मेरठ के बाबू सुकुमार चंदजी व मवाना के सेठ मूलचंदजी, लखमीचंदजी आदि लोगों का सहयोग मिलने लगा। पूज्य माताजी के आशीर्वाद और लगन का फल रहा कि हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर ही मंदिर से आधा फलांग दूर छोटी-सी भूमि क्रय की गई। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि सन् १९७२ में दिल्ली पहाड़ी धीरज पर डॉ० कैलाशचंद, लाला श्यामलाल वैद्य शांतिप्रसाद, श्री कैलाशचंदजी करोल बाग आदि महानुभावों को प्रमुख करके एक संस्था की स्थापना की गई जिसका नाम "दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" रखा गया। उसकी नॉमिनेटेड कमेटी का गठन भी किया गया। उसी समय "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" की भी स्थापना हुई एवं जम्बूद्वीप की पूर्व भूमिका के रूप में लकड़ी का एक सुन्दर जम्बूद्वीप मॉडल भी बनवाया गया था, जो वर्तमान में सिद्धवरकूट में रखा हुआ है। सन् १९७४ में उसी संस्थान के नाम से हस्तिनापुर की प्रारंभिक भूमि क्रय की गई उस भूमि के केन्द्र बिन्दु [बीचोंबीच ] में सुदर्शन मेरु पर्वत का शिलान्यास करवा कर माताजी निर्वाणोत्सव के निमित्त से पुनः दिल्ली आ गई। तब तक आ० धर्मसागर महाराज का विशाल संघ भी दिल्ली पदार्पण कर चुका था। आचार्य संघ के साथ ही माताजी ने भी दिल्ली में चातुर्मास स्थापना की विभिन्न आचार्य और मुनियों के सानिध्य में राजधानी में चारों संप्रदायों की ओर से भ० महावीर का २५०० वाँ निर्वाण महोत्सव राजनेताओं के सौजन्य से आशातीत सफलताओं के साथ सम्पन्न हुआ। पू० मुनि श्री विद्यानंदि महाराज कई विषयों में माताजी से परामर्श करते-करते अकसर कहते कि माताजी! हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर इस रचना की महत्ता अत्यधिक बढ़ेगी। सौभाग्य से सन् १९७५ के प्रारंभ में ही आ० श्री धर्मसागरजी का संघ और उपाध्याय विद्यानंदजी महाराज भी हस्तिनापुर पधारे और बड़ी रुचिपूर्वक रचना स्थल पर भ० महावीर स्वामी की प्रतिमा की स्थापना होते समय आ० श्री ने प्रतिमा के नीचे अचलयंत्र स्थापित किया वह छोटा सा महावीर मंदिर जम्बूद्वीप रचना की चहुँमुखी उन्नति में अनुपम प्रभावशाली सिद्ध हुआ। आज उसका विशाल कमल मंदिर बन चुका है। आ० श्री धर्मसागरजी का संघ हस्तिनापुर में लगभग ४ महीने रहा। सरधना के निवासियों ने उस समय बड़ी तत्परता से वैयावृत्ति की और चौके लगाकर आहारदान का लाभ लिया। आचार्य श्री जब हस्तिनापुर से मंगल विहार करने लगे, उस समय माताजी को आशीर्वाद प्रदान करके जम्बूद्वीप रचना के निमित्त हस्तिनापुर में ही रहने की प्रेरणा प्रदान की। अब माताजी के संघ में आर्यिका श्री रत्नमती माताजी और आर्यिका शिवमती जी रहीं। इन दोनों आर्यिकाओं और ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों सहित माताजी तीर्थक्षेत्र के बड़े मंदिर में रहती थीं। मंदिर से जम्बूद्वीप स्थल पर जाने में घने जंगल के कारण भय प्रतीत होता था। हम लोग भी कभी अकेले यहाँ तक आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। माताजी के साथ लगभग प्रतिदिन या एक-दो दिन बाद आते रहते थे। जंबूद्वीप स्थल पर मात्र एक चौकीदार का परिवार रहता था। ऑफिस के मैनेजर के रहने के लिए स्थल पर अभी तक कोई निर्माण नहीं हो सकने के कारण वे भी बड़े मंदिर में ही बाहर के एक कमरे में रहते थे । बाबू सुकुमारचंदजी माताजी तथा हम लोगों का विशेष ध्यान रखते और आवश्यकतानुसार सारी सुविधाएं भी प्रदान करते उनकी धर्मपत्नी प्रतिमाधारी व्रतिक महिला हैं। वे जब भी हस्तिनापुर आतीं, हमेशा आहारदान तथा वैयावृत्ति के भावों से माताजी की सेवा करतीं। कभी स्वयं अपना चौका लगाती और कभी हमारे चौके में आकर आहार देतीं। [ ५४३ पूज्य माताजी के निमित्त से अब हस्तिनापुर में राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, आसाम और उत्तर प्रदेश सभी ओर से लोग आने लगे। पिछड़ा और विस्तृत क्षेत्र अब प्रकाश में आने लगा तीर्थक्षेत्र कमेटी के सभी सदस्य और सुकुमारचन्दजी बड़े प्रसन्न होते और कहते कि माताजी आपके निमित्त से हमारा हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र अवश्य ही शीघ्र टूरिस्ट सेंटर बन जाएगा। इस क्षेत्र के मंदिर में दान की रकम तो हमारी बढ़ती जा रही है, आपका जंबूद्वीप बन जाने पर तो विदेशी पर्यटकों का भी यहाँ पर आना-जाना रहेगा और तब यह जैनभूगोल के अनुसंधान का विशेष केन्द्र बन जाएगा। बाहर से आने वाले हर दर्शनार्थी के मुँह से भी यही सुना जाता कि हम लोग मेरठ- सरधना तक तो हमेशा व्यापारिक निमित्तों से आते रहते थे, लेकिन हस्तिनापुर के दर्शन कभी नहीं किए थे। ज्ञानमती माताजी के दर्शनों के निमित्त से हमें दोहरा लाभ प्राप्त हो रहा है, यह खुशी की बात है माताजी ने कभी भी किसी से जंबूद्वीप रचना तथा अन्य किसी निर्माण आदि के लिए पैसे की बात नहीं कहीं। चूँकि माताजी भी बड़े मंदिर में ही रहती थीं अतः यात्री वहीं पर दान की रकम देते थे और अपनी इच्छानुसार जंबूद्वीप में भी दान देते जंबूद्वीप स्थल पर सुमेरुपर्वत का निर्माण कार्य यथाशक्ति चल रहा था। यहाँ पर एक ऑफिस की अत्यन्त आवश्यकता महसूस हो रही थी, जिससे निर्माण की गतिविधि सुचारु रूप से चल सके। Jain Educationa International 1 सन् १९७५ में ऑफिस की नींव रखी गई। कुछ दिनों में वह तैयार हो गया। तब से लेकर आज तक उसी कार्यालय की गतिविधियों से छोटे-बड़े समस्त आयोजन सफल हो रहे हैं संस्थान के मैनेजर अब कार्यालय में बैठते और दोनों संघस्थ ब्रहाचारी (मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार ) सुबह से शाम तक स्थल पर निर्माण आदि की कार्यवाही देखते और रात को सोने के लिए बड़े मंदिर के परिसर में आ जाते मैं प्रातःकाल पू० माताजी के साथ ही बड़े मंदिर से पूजन सामग्री और बाल्टी में शुद्ध जल तथा मंदिर की चाबी लेकर जंबूद्वीप स्थल पर आती; क्योंकि हम सभी लोग भगवान् महावीर के मंदिर में ही अभिषेक पूजन करते थे माताजी को शुरू से ही धार्मिक अनुष्ठानों, विधि-विधानों में अधिक रुचि रही है, उसी के अनुसार हम लोगों से भी सिद्धचक्र, गणधरवलय, शांतिविधान, ऋषिमंडल आदि अनेक विधान करवाए। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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