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________________ ५४२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ , माताजी भ्रमण करते-करते मध्यप्रदेश सनावद में अपने संघ सहित आ गई। यहाँ पर चातुर्मास के पूर्व विशिष्ट व्यक्तियों ने जब माताजी के मस्तिष्क की रचना को सुना और समझा तो रुचिपूर्वक वहीं पर इसे बनवाने का विचार करने लगे। पास में ही सनावद से ८-१० कि०मी० दूर सिद्धवरकूट सिद्ध क्षेत्र पर स्थान भी चयन किया गया। सनावद वालों की प्रेरणा से माताजी ने ज्येष्ठ मास में सिद्धवरकूट यात्रा के लिए विहार किया। साथ में श्री रखबचंदजी, कमलाबाई, ब्र० मोतीचंदजी, श्रीचंदजी, त्रिलोकचंदजी, देवेन्द्र कुमार आदि बहुत से लोग थे। सिद्धवरकूट नर्मदा नदी के तट पर बसा होने के कारण विशेष आकर्षण का केन्द्र है। नाव से ५-६ मील नदी के रास्ते को तय करके यात्रीगण उस क्षेत्र पर पहुँचते हैं। यात्रा संघ में गए हुए मोतीचंद आदि सभी लोगों ने इस दृष्टि से उस स्थान को रचना निर्माण के लिए चुना, जहाँ नर्मदा का जल सुविधापूर्वक प्राप्त करके अपने निर्माण में नदी-समुद्रों के लिए तथा फौव्वारों की सुन्दरता के लिए जल पर्याप्त अवस्था में प्राप्त कर सकें। बहुत लम्बी-चौड़ी जगह का माप लिया गया। रमणीक स्थान होने के कारण चहुँमुखी दृष्टियों का केन्द्र बनता, किन्तु वहाँ का भी योग नहीं था। अचानक आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के संघ से सूचना आ गई कि शानमती माताजी से कहो कि यह रचना महावीरजी तीर्थक्षेत्र पर बनेगी, अतः वे शीघ्र ही आर्यिका संघ सहित यहाँ आने का प्रयास करें माताजी के हृदय में प्रारंभ से ही अटूट गुरुभक्ति थी, गुरु भाई आचार्य श्री का संदेश मिलते ही जल्दी ही संघ में जा पहुँची। तब तक तो माताजी के मन में १३ द्वीप की रचना का ही प्लान था । 1 होनहार बहुत बलवान् होती है। आचार्य संघ महावीरजी पहुंचा ही था कि वहाँ पर आकस्मिक आ० श्री शिवसागर महाराज बीमार पड़ गए और देखते ही देखते फाल्गुनी अमावस्या को उनकी समाधि हो गई। अब उस संघ का नेतृत्व आ० श्री धर्मसागरजी महाराज के हाथों में आ गया। आ० श्री की समाधि से संघ का वातावरण शोकाकुल-सा रहा। अतः आगे कोई बात नहीं चलाई गई। माताजी भी संघ के साथ में बिहार व धर्मप्रभावना करती रहीं । महावीरजी के बाद सन् १९६९ में जब संघ का चातुर्मास जयपुर (राज०) में था, माताजी ने वहाँ पर ज्योतिर्लोक विषय पर शिविर लगाया। उस समय विद्वानों एवं जनता को करणानुयोग के विषय में नया दिशाबोध मिला संघस्थ ब्र० मोतीचंदजी ने परिश्रमपूर्वक कुछ विशेष नोट्स भी तैयार किए। कुछ दिनों बाद उन्हीं नोट्स के आधार पर एक पुस्तक "जैन ज्योतिलोंक" लिखी, जो आज भी दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान की वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला के द्वितीय पुष्प के रूप में उपलब्ध है। माताजी को तो जैसे करणानुयोग का सारा विषय हृदयंगम ही हो चुका था, यदि स्वप्न में भी कोई तत्संबंधी प्रश्न कर देवे तो उसका उत्तर आगम आधारपूर्वक प्रस्तुत रहता था। अवश्य ही इन्हें कोई न कोई पूर्व भव के प्रबल संस्कार ही कहना पड़ेगा। सन् १९७० का चातुर्मास टोंक में हुआ। पुनः सन् १९७१ का चातुर्मास आ० संघ के साथ ही अजमेर (राज०) में हुआ। वहाँ के सर सेठ भागचंदजी सोनी और उनकी धर्मपत्नी ज्ञान से प्रभावित होने के कारण पू० माताजी के पास अधिक समय निकाल कर स्वाध्याय आदि का लाभ लेते। चातुर्मास सोनीजी की नशिया में ही हुआ था; अतः वहीं पर प्रवचन भी होते थे। एक दिन सेठजी के सामने माताजी की बात हुई। उन्होंने बड़ी रुचिपूर्वक माताजी को उसी नशिया में ऊपर कमरे में बनी हुई रचना को खोल कर दिखाया उसमें भी कुछ-कुछ वही झलक थी, बीच में पाँच मेरु भी बनाए गए थे आज भी उधर के आस-पास के लोग उसे देखने आते है और उसे अयोध्या एवं पांडुक शिला की रचना कहते हैं। पू० माताजी की मनोभावना थी कि कहीं खुले स्थान पर पृथ्वी पर यह रचना बने, लेकिन तेरहद्वीप की रचना उस समय के लिए करोड़ों की लागत का कार्य था; अतः प्रश्नवाचक चिह्न बनकर खड़ा होता कि यह राशि कहाँ से आयेगी ? कौन इसकी जिम्मेदारी लेगा ? अन्ततोगत्वा ब्र० मोतीचंदजी के निवेदन पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि केवल जम्बूद्वीप की योजना को साकार करना चाहिए। अजमेर चातुर्मास समाप्त होने पर संघ का बिहार हुआ। यहाँ से कुछ दूर ही "पीसांगन" नाम के गाँव से पू० आचार्य श्री धर्मसागर महाराज का संघ कालू चला गया एवं माताजी ने ब्यावर की ओर विहार कर दिया। वहाँ पर पंचायती नशिया में एक कमरे में छोटा-सा जम्बूद्वीप मॉडल वहाँ के जैन समाज ने बनवाया, जिसमें शास्त्रोक्त विधि से जिनमंदिर एवं देवभवन आदि बने हैं और बिजली तथा फव्वारों से सुन्दर लवणसमुद्र तथा नदियों के दृश्य भी दिखाए गए हैं। ब्यावर में एक बार माताजी के पास दिल्ली से श्री परसादी लालजी पाटनी आदि कई सज्जन दर्शनार्थ पधारे। उन्होंने [वहाँ पर बनती हुई रचना को देखकर) माताजी से निवेदन किया कि दिल्ली में २५०० वे निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आप अपने संघ सहित अवश्य पधारें। वहाँ पर विशाल पैमाने पर इस रचना का निर्माण कार्य अधिक लोकोपयोगी सिद्ध होगा। दिल्लीवासियों की अधिक प्रेरणा से पू० माताजी ने दिल्ली की ओर विहार किया। उस समय माताजी के साथ मुनि श्री संभवसागरजी मुनि श्री वर्धमानसागरजी, आर्यिका आदिमतीजी, आर्यिका श्रेष्ठमतीजी एवं आर्यिका रत्नमती माताजी थीं। सन् १९७२ का चातुर्मास पूरे संघ का दिल्ली पहाड़ी धीरज की नन्हेमल घमण्डी लाल जैन धर्मशाला में हुआ। सन् १९७३ का चातुर्मास दिल्ली नजफगढ़ में हुआ। "जो होता है सो अच्छा ही होता है" यही कहावत चरितार्थ हुई पू० माताजी प्रारंभ से ही अटल पुरुषार्थी रही है। सन् १९७४ में उन्होंने हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की ओर विहार किया । पूज्य माताजी के पास फिलहाल उस समय ब्र० मोतीचंद के सिवाय कोई पुरुषार्थी शिष्य नहीं था। रवीन्द्रजी भी उस समय घर गए हुए थे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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