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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५४१ हो सका। सोलापुर में ब्र० सुमतिबाई और कु० विद्युल्लताजी ने जिस तन्मयता से पू० माताजी की व संघ की वैयावृत्ति की उसका उदाहरण माताजी के प्रवचन में कई बार सुनने को मिलता है। “विद्वत्ता के साथ-साथ साधु सेवा का गुण वास्तव में सोने में सुगन्धि का कार्य करता है।" इस प्रकार से सोलापुर का चातुर्मास माताजी के जीवन का अविस्मरणीय पृष्ठ है। माताजी की हार्दिक इच्छा तो हमेशा रही कि मेरे मस्तिष्क की रचना कहीं न कहीं पृथ्वी पर अवश्य साकार हो जाए, किन्तु वे इसमें माध्यम नहीं बनना चाहती थीं। उनकी इच्छा थी कि कोई इसे स्वयं अपनी जिम्मेदारी पर करवाए। यही कारण रहा कि कहीं इसका योग नहीं बना। वैसे तो ऐसे-ऐसे महान् कार्य किसी साधु-सन्तों के आश्रय के बिना असंभव ही होते हैं। इस शताब्दी के पुराने इतिहास को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि धार्मिक साहित्य तथा तीर्थों का उद्धार साधुओं के द्वारा ही हुआ है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य सम्राट् श्री शांतिसागर महाराज की प्रेरणा से प्राचीन सिद्धांत ग्रंथ धवला ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण हुआ, जो फलटण में आज भी विराजमान है। युगों-युगों तक यही साहित्यिक धरोहर जैनधर्म की प्राचीनता को दर्शाएगा। इसी प्रकार से कुंथलगिरी में देशभूषण और कुलभूषण मुनिराजों की प्रतिमाओं की स्थापना भी आ० श्री की प्रेरणा से ही हुई। वह तीर्थ आ० श्री को अत्यंत प्रिय था, इसीलिए उन्होंने वहीं पर सल्लेखनापूर्वक अपने अंतिम शरीर का त्याग किया। कुम्भोज बाहुबली जो महाराष्ट्र का जीवन्त तीर्थ है उसका उत्थान भी आचार्य श्री की प्रेरणा से ही हुआ। इसका सुन्दर ज्यों का त्यों वर्णन डॉ० श्री सुभाषचन्द अक्कोले ने "आ० शांतिसागर जन्मशताब्दी महोत्सव स्मृति ग्रंथ" में किया है। उन्होंने किस प्रकार से मुनि समन्तभद्रजी को कुम्भोज में बाहुबली की प्रतिमा स्थापित करने की प्रेरणा और आशीर्वाद प्रदान किया। देखिये "तुमची इच्छा येथे हजारों विद्यार्थ्यांनी राहावे शिकावे . . . . . हा तुम्हा सर्वांना आशीर्वाद आहे।" इसका हिन्दी अर्थ यह है “आपकी आन्तरिक इच्छा यह है कि यहाँ पर हजारों विद्यार्थी धर्माध्ययन करते रहें इसका मुझे परिचय है। यह कल्पवृक्ष खड़ा करके जा रहा हूँ। भगवान का दिव्य अधिष्ठान सब काम पूरा कराने में समर्थ है। यथासंभव बड़े पाषाण को प्राप्त कर इस कार्य को पूरा कर लीजिए।" मुनिश्री समन्तभद्रजी की ओर दृष्टिकर संकेत किया-"आपकी प्रकृति (स्वभाव) को बराबर जानता हूँ। यह तीर्थभूमि है। मुनियों को विहार करते रहना चाहिए, इस प्रकार सर्वमान्य नियम है फिर भी विहार करते हुए जिस प्रयोजन की पूर्ति करनी है, उसे एक स्थान में यहीं पर रहकर कर लो। यह तीर्थ-क्षेत्र है, एक जगह पर रहने के लिए कोई बाधा नहीं है। जिस प्रकार से हो सके कार्य शीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करना । कार्य अवश्य ही पूरा होगा, सुनिश्चित पूरा होगा। आप सबको हमारा शुभाशीर्वाद है।" इस तीर्थ को मुनि श्री समन्तभद्रजी ने एक महान् तीर्थ बना दिया। आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज ने अयोध्या में १००८ भ० आदिनाथ की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई, जयपुर खानिया का चूलगिरि पर्वत उन्हीं की देन है। उन्होंने अपनी गृहस्थावस्था की जन्मभूमि कोथली में कितना विशाल कार्य करवाया। गुरुओं की प्रेरणा व आशीर्वाद भक्तों के कार्यकलापों में संबल प्रदान करता है। आचार्य श्री विमलसागर महाराज ने सम्मेदशिखर में समवशरण की रचना बनवाई, सोनागिरी में उनकी प्रेरणा से नंग-अनंग की मूर्ति तथा गुरुकुल की स्थापना हुई। इसी प्रकार जगह-जगह आ० श्री की प्रेरणा से बहुत से धार्मिक कार्य होते रहते हैं। आ० श्री विद्यासागर महाराज की प्रेरणा से सागर एवं जबलपुर (म०प्र०) में ब्राह्मी विद्या आश्रम की स्थापना हुई, जिसमें सैकड़ों अल्पवयस्क बालिकाएं ज्ञानार्जन करके आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर हैं। इसी प्रकार से धर्मगुरुओं की प्रेरणा से हमेशा समाज एवं धर्म की उन्नति हुई है। निन्दा और प्रशंसा की ओर इन साधुओं का लक्ष्य न होकर आत्म और पर के कल्याण की ओर ही होता है। निन्दा करने वाले मात्र अपने कर्म का बन्ध कर लेते हैं जो कि उन्हें भव-भव में स्वयं को भोगना पड़ता है। एक भव की अज्ञानता अनेक भव परिवर्तनों का कारण बनती है। तभी तो आचार्यों ने कहा है "भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ॥" अर्थात् गृहस्थ को साधुओं की निंदा करने से क्या प्रयोजन ? वह तो आहारदानादि अपनी क्रियाओं को करके शुभ भावों का बन्ध कर ही लेता है, साधु में यदि साधुता नहीं है तो उसका फल उन्हें स्वयं भोगना पड़ेगा, श्रावक तो उसके फल में हकदार हो नहीं सकता। वर्तमान में मनुष्यों की स्थिति यह है कि व्यापारिक उलझनों में उलझकर रिश्वत में हजारों, लाखों रुपया देकर भी चैन की नींद नहीं सो सकते। जबकि सुबह से शाम तक एड़ी से चोटी तक परिश्रम करके खून-पसीना बहा करके केवल पारिवारिक संतुष्टियों के लिए सब कुछ किया जाता है। यदि इसकी जगह संतोषपूर्वक न्याय से थोड़ा धन कमाया जाए, उसी में से थोड़ा धर्मकार्यों में दान किया जाए, साधुओं की प्रेरणा से किसी धर्मतीर्थ का जीर्णोद्धार करा दिया जाए तो वह अधिक श्रेयस्कर है। लेकिन इसका मूल्यांकन कोई विरले पुरुष ही कर सकते हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जब तक इस रचना कार्य में स्वयं को नहीं डाला, तब तक वह प्रादुर्भूत न हो सकीं। सोलापुर से विहार करके Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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