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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ माताजी स्वयं भी लाखों मंत्रों का जाप्य किया करती थीं। मैं समझती हूँ कि उनकी तपस्या एवं मंत्रों का ही प्रभाव है कि त्रिलोक शोध संस्थान के सभी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुए हैं। जंबूद्वीप स्थल पर सुमेरु पर्वत का कार्य द्रुत गति से चल रहा था। दिल्ली के इंजीनियर श्री के०सी० जैन, के०पी० जैन, एस०एस० गोयल तथा रुड़की के प्रसिद्ध इंजीनियर श्री डॉ० ओ०पी० जैन की विशेष देख-रेख में ८४ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत का निर्माण हुआ। जिसमें नीचे से ऊपर तक १३६ सीढ़ियां बनाई गईं। गुलाबी संगमरमर पत्थर से जड़ा हुआ सुमेरु पर्वत भक्तों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। इसमें १६ जिनप्रतिमाएं हैं, जो अकृत्रिम बिम्बों के समान ही वीतरागी छवि से युक्त हैं। यह एक अनुभव गम्य विषय है कि जो भी दर्शक इन प्रतिमाओं के समक्ष नजदीकी से जाकर दर्शन कर आत्मावलोकन करते हैं, उन्हें अभूतपूर्व शांति प्राप्त होती है। ज्ञानमती माताजी इस पर्वत के ऊपर पांडुकवन में जाकर बहुधा घंटों ध्यान किया करती थीं। आज भी यदा-कदा करती हैं। प्रातः, मध्याह्न और सायं तीनों समय यह पर्वत रंग बदलता हुआ-सा प्रतीत होता है। पूर्व दिशा के उगते सूर्य की लालिमा जब सुमेरु पर्वत पर पड़ती है, तब उसकी आभा केसरिया रंग से युक्त हो जाती है। सामने भद्रसाल वन की प्रतिमा का दर्शन करते हुए पीछे सूर्य का प्रतिबिम्ब चमकते भामंडल जैसा प्रतीत होता है। मध्याह्न ११ बजे के अनंतर तप्तायमान सूर्य की किरणें उस पूरे पर्वत को स्वर्णिम रूप में परिवर्तित कर देती हैं। पुनः संध्याकाल में विशेष रूप से शुक्ल पक्ष की चांदनी रात्रि में धवल दुग्ध के समान चंद्रमा की शीतल किरणे अभिषेक करती हुई प्रतीत होती हैं। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि सुमेरु पर्वत में विराजमान स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं का अतिशय ही इसे चमत्कृत कर रहा है। सूर्योदय और सूर्यास्त के मनोरम दृश्यसुमेरु पर्वत में ऊपर पांडुक वन में चढ़ने पर प्रातः सूर्य के उदय का और शाम को अस्ताचल की ओर जाते हुए सूर्य बिम्ब का दर्शन बड़ा सुन्दर लगता है। अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की भांति इसका भी विशेष महत्त्व प्रदर्शन किया जा सकता था, किन्तु हस्तिनापुर में इस विषय का प्रचार इसलिए नहीं किया गया कि ऊपर चढ़ते हुए स्थान अत्यन्त संकुचित रह गया है जहाँ अधिक लोग एक साथ न चढ़ सकते हैं और न वहाँ बैठने की ही पर्याप्त जगह है, वर्ना यह जंबूद्वीप माउण्ट आबू जैसी ख्याति को प्राप्त हो सकता था। ख्याति तो यूं भी बहुत है। इस रम्य क्षेत्र में लोग जंबूद्वीप के दर्शन करने प्रातः ५ बजे से ही आने प्रारंभ हो जाते हैं। मध्याह्न की कड़कड़ाती धूप में भी सतत सुमेरु पर्वत पर यात्रियों का आवागमन चला करता है। रात्रि होते-होते भी यात्रियों के दिल में दर्शन की एवं सुमेरु पर चढ़ने की उत्कण्ठा बनी रहती है, किन्तु व्यवस्था की दृष्टि से अंधकार होने से पूर्व ही जंबूद्वीप के दरवाजे बन्द कर दिए जाते हैं। सुदर्शन मेरू पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवउपर्युक्त वर्णित सुमेरु पर्वत का निर्माण सन् १९७९ में हुआ। पुनः उसका पंचकल्याणक महोत्सव भी २९ अप्रैल से ३ मई, १९७९ तक संपन्न हुआ था। इस महोत्सव से पूर्व ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित दिल्ली में धर्मप्रभावना कर रही थीं। संस्थान के कार्यकर्ताओं ने पू० माताजी से मेले में पधारने का आग्रह किया। उस समय प्रथम बार माताजी के संघ को जंबूद्वीप स्थल पर ही ठहराया गया। स्थल पर फ्लैट का प्रथम निर्माणसन् १९७८ में हस्तिनापुर में पू० आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज पधारे। उसी समय दिल्ली से सेठ उम्मेदमलजी पांड्या सपरिवार दर्शनार्थ आए थे। महाराज श्री ने यहाँ पर स्थानाभाव देखकर पांड्याजी को प्रेरणा दी, उनकी प्रेरणानुसार दो कमरे, बॉथरूम, लैट्रीन, रसोई, स्टोर सहित फ्लैट का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे और प्रगति हुई, दानियों की भावनाएं हुईं। अतः इन्हीं फ्लैट के ऊपर २-३ कमरे बनाए गए। सुदर्शन मेरु प्रतिष्ठा महोत्सव का समय नजदीक आ रहा था। माताजी के संघ का आगमन होने वाला था। संघ को ठहराने के लिए इन्हीं फ्लैट के सामने फूस की दो झोपड़ियाँ बनाई गईं। उन्हीं में माताजी को ठहराया गया। प्रतिष्ठा के २-४ दिन पूर्व उम्मेदमलजी पांड्या दर्शनार्थ हस्तिनापुर आये और उन्होंने माताजी को आग्रहपूर्वक फ्लैट में ठहराया। स्वयं वे टेण्टों में ठहरे। यह उनकी गुरुभक्ति का नमूना था। सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक महोत्सव के कार्यक्रम प्रारंभ हुए। इसी सुअवसर पर पूज्य मुनि श्री श्रेयांस सागरजी महाराज, जो १० जून, सन् १९९० को चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा के पंचम पट्टाचार्य बने, अपने संघ सहित पधारे। मुनि श्री के साथ में आर्यिका श्री अरहमती माताजी और श्री श्रेयांसमती माताजी थीं (जो क्रम से उनकी गृहस्थावस्था की मां और पत्नी थीं) पू० ज्ञानमती माताजी के साथ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी और शिवमती माताजी थीं। यह तो सर्वविदित ही है कि रत्नमतीजी ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री माँ हैं, जो स्वयं ज्ञानमती माताजी का शिष्यत्व स्वीकार करके रत्नत्रय साधना की ओर अग्रसर थीं। पू० रत्नमती माताजी ने अपनी शारीरिक अस्वस्थता के Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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