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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ | क्रम प्रारम्भ हुआ वह यावच्चन्द्र- दिवाकरौ इतिहास की अमिट लकीर बना रहेगा। सबसे बड़ी बात जो मैंने माँ के व्यक्तित्व में देखी, वह है आदम्य साहस, दूरदृष्टियुक्त निर्णय लेने की क्षमता और उसकी पूर्ति हेतु दृढ़ संकल्प शक्ति चाहे जम्बूद्वीप रचना का प्रसंग हो, चाहे त्रिलोक शोध संस्थान के गठन का, चाहे ज्ञान ज्योति प्रवर्त्तन का लक्ष्य और चाहे अन्य उन्होंने अविचलित होकर मार्गदर्शन किया। यही कारण है कि माँ क्या निर्णय लेती हैं यही सबका अभीष्ट रहता है। लगभग दस वर्ष पूर्व जब अ० भा० दि० जैन महासभा मृतप्राय थी, उसके निवर्त्तमान अध्यक्ष माननीय श्री लखमीचन्द छावड़ा ने पदभार से मुक्त होने की इच्छा व्यक्त की थी। हम सब हस्तिनापुर में माँ के चरणों में एकत्रित थे किंकर्तव्यविमूढ़ एवं असमञ्जस में थे उस समय हमें माँ ने ही उदीयमान नक्षत्र आदरणीय श्री निर्मल कुमारजी सेठी के नेतृत्व में चलने की सलाह दी थी। माँ में रत्न को परखने का अद्भुत गुण है। उनका भविष्यज्ञान एवं निमित्तज्ञान हम सबके लिए वरदान है। वे सदैव ज्ञानोपयोग में तल्लीन रहती हैं हम सबका सौभाग्य है कि उन्होंने जनहित हेतु शताधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया। वे शास्त्रीय ज्ञान की भंडार हैं। उन्होंने चारों अनुयोगों पर लेखनी चलाई है। स्वस्थ बाल-साहित्य को उन्होंने सर्वोपरि स्थान दिया है। वे न्याय, व्याकरण, अलंकार, छन्द और भाषा आदि सभी क्षेत्रों में पारंगत हैं। क्लिष्टतम अष्टसहस्री जैसे प्रन्थों की टीका उनके पाण्डित्य का प्रमाण है। भक्ति क्षेत्र में उनके द्वारा रचित पूजा-विधान सर्वविदित हैं। ज्ञान प्रसार के क्षेत्र में उनका अद्वितीय स्थान है। नारी जाति को विशिष्ट गौरवान्वित करने में वे आदर्श हैं। वे ब्रह्मचर्य की साकार प्रतिमा है वे विद्वानों के सृजन में संलग्न है। 1 जम्बूद्वीप-रचना उनकी जैनधर्मप्रभावना की रुचि का जीता जागता प्रमाण है, इससे उन्होंने जैनेतर जनता को जैनधर्म के निकट लाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। जम्बूद्वीप परिसर की भव्यता उनके ही मार्गदर्शन का परिणाम है। आर्षमार्ग की दृढ़ श्रद्धानी हैं एवं पंथ व्यामोह से मुक्त हैं। देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति एवं रक्षा उनका पावन उद्देश्य है। एकान्तवाद के दुष्प्रचार का निरसन कर व्यवहार निश्चय सापेक्ष मोक्षमार्ग की उन्होंने प्रतिष्ठा की है। उनकी प्रेरणा से सुरुचिपूर्ण एवं वहदपरिमाण में साहित्य प्रकाशन हो रहा है जो दिशाबोध के लिए समर्थ है। [८९ मुझे अनेक बार निकटता से माताजी का चरण सानिध्य प्राप्त हुआ है। उनका निष्पक्ष मार्गदर्शन मेरे लिए सदैव प्रेरक बिन्दु रहेगा। वात्सल्य की प्रतिकृति के प्रति मैं श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ एवं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि वे दीर्घजीवी होकर हम सबका मार्गदर्शन करती रहें । इत्यलम् । Jain Educationa International विद्वानों की जननी माता ज्ञानमती : - डॉ० सुशील जैन, मैनपुरी | परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्र १०५ श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐतिहासिक महामानवी है आर्यिका की चर्चा का पालन करते हुए भी आपने ऐसे कार्य किये, जिनका उल्लेख पुराणों में भी ऐसा पूर्व में किया गया हो, ऐसा नहीं मिलता। लेखन प्रतिभा की धनी, सरस्वती जिनके मुख पर विराजती है, ऐसी माताजी ने इतना साहित्य हम सबको प्रदान किया है कि वह हमारी एक अमूल्य धरोहर बन गया है। जम्बूद्वीप की प्रेरिका के रूप में बीस वर्षों में ही एक ऐसा तीर्थ माताजी के माध्यम से बना है जो न केवल जैन तीर्थ के रूप में विकसित हुआ है, वरन् जैनेतरों के आकर्षण का भी केन्द्र बन गया है और मुझे विश्वास है कि आगामी शताब्दियों में यह ताजमहल की भाँति विश्व के पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र बनेगा। “सम्यग्ज्ञान" के द्वारा समीचीन ज्ञान का चारों अनुयोगों सहित प्रचार-प्रसार घर के हर सदस्य के लिए प्रेरणास्रोत बना है । यह सब तो सभी जानते हैं, परन्तु मेरे लिए तो पूज्या माताजी केवल आर्यिका माता के रूप में ही नहीं, अपितु एक जननी के रूप में हैं। अगर माताजी ने यह जननी का रूप न लिया होता तो शायद मैं वह न होता जो आज हूँ। 1 १९७६ में ललितपुर शिविर के बाद १९७८ में हस्तिनापुर में एक शिविर का आयोजन था मै मात्र एक श्रोता के रूप में वहाँ गया था। अचानक एक दिन पूज्या माताजी ने मुझे बुलाकर एक स्लिप दी कि तुम्हें थोड़ी देर किसी विषय पर बोलना है मैं अवाक् रह गया मेरा पूर्व का न तो ऐसा अध्ययन था तथा न ही अनुभव। मैंने मना किया तो माताजी ने उत्साह बढ़ाते हुए "प्रवचन निर्देशिका" दी तथा १५ मिनट बोलने के लिए कहा। पुस्तक को पढ़ा, नोट्स तैयार किये तथा लगभग ४ घण्टे बाद ही मध्याह्न के सत्र में मैं "सम्यग्दर्शन के बाह्य निमित्त" पर १५ मिनट बोला। समापन के बाद सभी उपस्थित विद्वद्जन, श्रोताओं के साथ ही पूज्या माताजी ने, पं० बाबूलालजी जमादार, डॉ० लालबहादुर शास्त्री, श्री कैलाशचंद्र राजा टायज आदि ने मुझे काफी प्रोत्साहन दिया पूज्या माताजी की प्रेरणा से इस प्रथम प्रवास से श्री जमादारजी तो इतने प्रभावित For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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