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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
हुए कि उन्होंने मुझे उसी समय उसी वर्ष पर्युषण में प्रवचनार्थ अहमदाबाद जाने की तैयारी करने को कहा। पूज्या माताजी ने आशीर्वाद दिया तथा उस वर्ष अहमदाबाद प्रवचनों के बाद तो मेरा स्वयं ही विश्वास जग उठा और फिर सूरत, अलीगढ़, फिरोजाबाद, कलकत्ता, कानपुर, जबलपुर, गोहाटी, मैनपुरी आदि के क्रम तो सभी को पता ही हैं। कलकत्ता प्रवचन से पूर्व शिखरजी में पू० आचार्य गुरुवर १०८ विद्यासागरजी महाराज का वरदहस्त द्वारा आशीर्वाद भी जहाँ मेरी सफलता का एक कारण बना, वहाँ मैं यही विचारता हूँ कि यदि उस दिन पूज्या माताजी ने मुझे बोलने का आदेश/अवसर/प्रेरणा/आशीर्वाद न दिया होता तो शायद मैं मात्र एक डॉ० सुशील के रूप में ही रह जाता। एक विद्वान् के रूप में तो कतई ख्याति प्राप्त न कर पाता। इस प्रकार माँ एक विद्वत् जननी के रूप में मेरे लिए वंदना/अभिवंदना की पात्र हैं। पूज्य माताजी के अभिवंदन ग्रंथ के प्रकाशन के शुभावसर पर पूज्य माताजी के चरणों में अपनी वंदना अर्पित करते हुए मैं अपनी व परिवार के सहित श्रमणभारती मैनपुरी की ओर से भी हार्दिक विनयांजलि अर्पित करते हुए पूज्या माताजी के आशीर्वाद की कामना करता हूँ तथा प्रार्थना करता हूँ कि वह स्वस्थ रहते हुए शतायु हों तथा हम सबको अपना आशीर्वाद प्रदान करती रहें।
ओजस्वी वाणी की स्वामिनी
-पं० मल्लिनाथ जैन शास्त्री, मद्रास
पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी आदि भाषाओं में अद्वितीय विदुषी हैं। अष्टसहस्री-सरीखे कठिन से कठिन तर्कशास्त्र को भी आपने हिन्दी में अनुवाद कर महोपकार किया है। सैकड़ों संस्कृत, प्राकृत ग्रन्थों को हिन्दी में अनुवाद कर प्रकाशित किया है। पू० माताजी की प्रतिभा एवं विद्वत्ता अगाध है। पू० माताजी लिखने एवं बोलने में चतुर हैं। माताजी की ओजस्वी वाणी से लोग आकर्षित हो जाते हैं। पू० माताजी की वाणी मधुरता एवं सरसता से ओत-प्रोत रहती है।
लगभग १५ साल पूर्व की बात है। पं० बाबूलालजी जमादार के जमाने में पू० माताजी ने हस्तिनापुर के अन्दर शिविर लगाया था। वह दस दिन तक लगातार चला। मैं उसमें शामिल हुआ था। पहला दर्शन उसी समय हुआ था, उसके बाद कई बार पू० माताजी का दर्शन होता रहता है। पू० माताजी के द्वारा पहली बार जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी, उसमें भी शामिल होकर भगवान् का पंचकल्याणक वैभव एवं माताजी का ओजस्वी भाषण सुनने का सौभाग्य मिला।
पूज्य माताजी आचार्यवर्य श्री १०८ वीरसागरजी महाराज रूपी सिन्धु से निकला हुआ अमृत है। पू० माताजी की उपदेशामृत वाणी से हजारों लोगों का उद्धार हुआ है। पू० माताजी ने हस्तिनापुर के अन्दर त्रिलोक शोध संस्थान नामक संस्था कायमकर समाज और धर्म का महान् उपकार किया है। इस जम्बूद्वीप रचना के कारण हस्तिनापुर का नाम कोने-कोने में फैल गया है। जैन-अजैन सारी जनता भेदभाव के बिना इसे देखने आती रहती है। इससे जैन धर्म की महती प्रभावना हो रही है।
पूज्य माताजी कृतज्ञता की मूर्ति हैं। अपने दीक्षागुरु आचार्यवर्य श्री वीरसागरजी महाराज का स्मृति-ग्रन्थ निकालकर गुरु-दक्षिणा एवं कृतज्ञता निरूपण कर कृतकृत्य हुई हैं। वीतराग जिन भगवान, उनसे कहे गये परमागम, उस पथ पर चलने वाले परम तपस्वीगण इन तीनों के प्रति आपकी
अगाध भक्ति है। आप अपने चारित्राराधना में अनवरत लगी रहती हैं। आपके उदार चित्त की गरिमा का साक्षात् उदाहरण यह है कि आपने अपने भाई और बहनों एवं माँ को भी इस परम पवित्र त्यागमार्ग में लगा दिया। यह अत्यन्त प्रशंसनीय बात है। दुनिया अपने परिवार को भोग-मार्ग पर लगाकर सन्तुष्ट होती है, परन्तु आप अपने परिवार को नश्वर भोग लालसा से हटाकर आत्मा के हित पहुँचाने वाले त्याग-मार्ग पर लगाकर शोभायमान हो रही हैं। इस विषय में अपनी जैनी जनता को आपसे शिक्षा लेनी चाहिए।
इस तरह आपकी गुण गरिमा के बारे में लिखते जावें तो एक पोथी बन जायेगी। किस-किसको लिखें और किस-किसको छोड़ें। इसका मतलब यह है कि आप गुण की भण्डार हैं। आपके अन्दर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग के उपयोगी ये तीनों रत्न जाज्वल्यमान रहते हैं।
अतः मैं जिनेन्द्रदेव के चरणों में तथा शासन देवताओं से प्रार्थना करता हूँ कि आप सारोग्य दीर्घायु होकर शतायु से अधिक काल तक जीवित रहते हुए आत्मोन्नति के साथ-साथ जिनवाणी माता के प्रचार-प्रसार को सदा-सर्वदा करती रहें।
आखिर इस अत्यन्त सन्तोषप्रद अभिवंदन ग्रन्थ समारोह के शुभ अवसर पर मैं आपके चरणयुगलों में अपनी विनयांजलि समर्पित करता हुआ अपने को धन्य मानता हूँ।
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