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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "भ्रमण करती ज्ञानशाला" - पं० गुलाबचन्द्र जैन "पुष्प" टीकमगढ़ [म०प्र०] संवत् १९९१ आश्विनशुक्ला १५ चन्द्रवार अश्विनी नक्षत्र दि० २२.१०.१९३४ की रात्रि में ९ बजकर १५ मिनट पर अवध प्रान्त के टिकैतनगर में श्रेष्ठी छोटेलालजी, माँ मोहिनी देवी ने ज्ञान का टिकट लिये ज्ञान को आलोकित करने के लिए मैना को जन्म दिया। गृह जंजाल के १८ वर्ष पूर्णकर संयम की यात्रा प्रारंभ हुई। प्रातः स्मरणीय परम पूज्य आचार्यरत्न १०८ देशभूषणजी महाराज से सप्तम प्रतिमा ग्रहण की। श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र की पावन धरा पर धारण कर ली क्षुल्लिका दीक्षा। अब संयमोपकरण के साथ ज्ञानधारा असीमित प्रवाहित हुई पूज्य गुरुदेव की असीम अनुकंपा एवं आशीर्वाद से। संयम साधना की प्रकृष्ट भावना से प्रेरित हो आर्यिका व्रत धारण कर ज्ञानमती के नाम से भारत की वसुन्धरा को गौरवान्वित किया। विश्ववंद्य त्रिलोकीनाथ भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ की जन्म भूमि और भगवान आदिनाथ के प्रथम आहारस्थल कुरुजांगल के हस्तिनापुर नगर में जम्बूद्वीप की शास्त्रोक्त रचना को साकार रूप दिया। जिसके दर्शन कर प्रत्येक प्राणी आश्चर्यान्वित होकर आत्मदर्शन प्राप्त करने वाले मार्ग का पथिक बन सकता है । ऐसी अद्वितीय रचना भारत में कहीं अन्यत्र नहीं पाई जाती। एक अपूर्व देन और है कि उसी स्थल पर त्रिलोक शोध संस्थान आपके द्वारा स्थापित की गई, जिसके द्वारा अनेकानेक आगम ग्रन्थों का अन्वेषण एवं निर्माण जीवन विकास कर समुज्ज्वलित बनाने के लिए अनेक विद्यार्थीजन ज्ञानार्जन कर धर्म के प्रचार में रत होंगे। माताजी द्वारा अलौकिक भक्ति मार्ग का विकास किया गया। जिस संस्कृत के इन्द्रध्वज विधान के हमें दर्शन भी अप्राप्त थे, आज उसी विधान की हिन्दी भाषा में भावभक्ति से परिपूर्ण रचना हुई जिससे कि अधिकाधिक लोग उससे लाभान्वित होकर आत्मविशुद्धि के पथानुगामी बन रहे हैं। इसी प्रकार जम्बूद्वीपविधान, तीनलोक पूजा, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र आदि महान् विधान एवं अनेक लघु विधान पूजाएँ माताजी द्वारा अनेक छन्दों में लिखी गई हैं। संगीत की स्वर लहरी से जब पूजा की जाती है तो विद्वत् समाज आत्मविभोर हो जाता है। श्रद्धा चारित्र-भक्ति का अनूठा संगम आपके समीप पाया जाता है। माताजी ने अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना एवं अनेक सैद्धान्तिक ग्रंथों की विशद् टीकाएँ लिखी हैं। एक अलौकिक कार्य तो यह हुआ कि परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्दिजी महाराज द्वारा विरचित दार्शनिक ग्रंथ अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिंतामणि हिन्दी टीका लिखी। आपका अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग और सिद्धान्त, जैन न्याय का तलस्पर्शी ज्ञान ही इस कार्य को सफलता के साथ कर सका; क्योंकि अनेक विद्वान् इसे कष्टसहस्री मानते रहे, किंतु माताजी की प्रतिभा एवं ज्ञानावगाहन की विशेषता का यह अविस्मरणीय कार्य है। माताजी ने कन्नड़, मराठी, प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषा के अधिकारपूर्ण ज्ञान द्वारा अनेक ग्रंथों की रचना की। अनेक ग्रंथों की टीका की और त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा महत्त्वपूर्ण प्रकाशन कराया। जो अनुकरणीय, प्रशंसनीय एवं आदरणीय है। आप सिद्धान्तवारिधि, न्याय प्रभाकर, विधान वाचस्पति, कुशल वक्ता जैनदर्शन के तलस्पर्शी ज्ञान से विभूषित हैं। जब तक यह कृतियाँ जन-जन में ज्ञान प्रसार को करती रहेंगी, तब तक आपकी कीर्ति अमर रहेगी। आपके गुणों से अनुरक्त आपकी दीर्घायु की कामना के साथ विनयांजलि समर्पित निम्न भावना के साथ करते हैं सूरत से कीरत बड़ी बिना पंख उड़ जाय । सूरत तो जाती रहे, पर कीरत कभी न जाय । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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