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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
जैनधर्म अनादि निधन है!
"उत्तमे सुखे धरतीति धर्मः" अर्थात् जो संसार के दुःखों से निकालकर संसारी प्राणियों को उत्तम सुख में पहुँचाता है, वह "धर्म" कहलाता है तथा 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी प्रकार की गई है - "कर्मारातीन् जयतीति जिनः" अर्थात् कर्म शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है, वे 'जिन' कहे जाते हैं एवं "जिनो देवता यस्यासौ जैनः” इसका अर्थ है कि जिनेन्द्र भगवान् जिनके देवता हैं, अर्थात् जो जिनेन्द्र की उपासना करते हैं वे "जैन" कहलाते हैं। इस प्रकार जैन और धर्म का समुच्चय रूप 'जैनधर्म' है।
इस जैनधर्म का सीधा संबंध व्यक्ति के आचरण एवं आत्मा से है न कि "जाति" या "सम्प्रदाय" से। आज जैनधर्म को जातिवाचक व्यक्तिगत धर्म बना दिया गया है, किन्तु जैनधर्म जहाँ प्रत्येक मानव पालन कर सकता है, वहीं तिर्य पशु-पक्षी भी उसे अनादिकाल से धारण करते आए हैं, जिनके अनेक उदाहरण पुराणों में देखे जाते हैं।
इस धर्म की व्यापकता के साथ-साथ इसके अनादिनिधनत्व पर भी ध्यान देना परमावश्यक है। इसे न तो भगवान् वृषभदेव ने चलाया और न तीर्थङ्कर महावीर ने वह अनादिकाल से इस सृष्टि के साथ समाहित रहा है। तीर्थङ्करों ने तो समय-समय पर इस धर्म का प्रवर्तन प्रचार किया है, न कि चलाया है। इसी प्रकार यह धर्म कभी समाप्त भी नहीं होता है, इसीलिए इसे "अनन्तता" प्राप्त है। जो धर्म किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा प्रारंभ किये जाते हैं, उनका कभी नाश भी संभव है, किन्तु जैसे प्रकृति को कोई नष्ट नहीं कर सकता, उसी प्रकार जैनधर्म भी चूँकि प्राकृतिक धर्म है, इसलिए उसका नाश संभव नहीं है।
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जैन सिद्धान्त के अनुसार संसार की सृष्टि भी प्राकृतिक और अनादि निधन है, उसे न कोई विधाता ब्रह्मा बनाता है और न कोई महेश्वर उसका संहार करता है। यहाँ सृष्टि की रचना में 'कर्म' को मूलस्रोत माना है। यूँ तो सृष्टि का रहस्य जानने की जिज्ञासा मनुष्य की बहुत पुरानी जिज्ञासा है। मानव को कल्याण का मार्ग बताने वाले प्रायः सभी विचारकों ने इस रहस्य को समझने-समझाने के प्रयास किये हैं। उनके समाधान चाहे जितने भिन्न रहे हों, परन्तु एक तथ्य पर वे सभी प्रायः एकमत हो जाते हैं कि यह सारी सृष्टि मूलतः जड़ और चेतन इन दो तत्वों के मेल से बनी है। विश्व में सारा खेल इन्हीं दो तत्त्वों का है ।
चेतन का मतलब तो आत्मतत्त्व है ही और जड़ का तात्पर्य पुद्गल से है। इन जड़ और चेतन का पारस्परिक संबंध ही कर्म कहलाता है, जो कि संसार का विराट् रूप बना हुआ है। कर्म आठ हैं - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । वास्तव में तो ये कर्म ही हम सबके विधाता ब्रह्मा हैं, जिनसे हमारी अनादिकालीन सृष्टि रची जा रही है। इन कर्मों के ही बंध, उदय आदि से गतियों का निर्माण चलता है।
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जैन सिद्धान्तानुसार गतियाँ चार है— देवगति, मनुष्यगति, नरकगति और तिर्यञ्चगति। इनमें से शुभ कर्मों से 'देवगति' प्राप्त होती है, शुभ-अशुभ दोनों कर्मों से 'मनुष्यगति' मिलती है, पाप कर्म के कारण जीवों को तिर्यञ्च गति में जाना पड़ता है और तीव्र पाप कर्मों से "नरकगति" की प्राप्ति होती है। इन गतियों में भ्रमण करते-करते कभी यह जीव काललब्धिवश सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है।
सम्यग्दर्शन क्या है?
आत्मा में जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बताए गए तत्त्वों के प्रति रुचि जाग्रत हो जाने का नाम ही "सम्यग्दर्शन" है। यह मनुष्यों में आठ वर्षों के बाद और शेष तीनों गतियों में भी अपने-अपने समयानुसार उत्पन्न हो सकता है।
संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो जो मनुष्य जैनेश्वरी दीक्षा धारण करते हैं, संसार से पार कराने वाले सम्यग्ज्ञान का अर्जन करते है, तब वे शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
मोक्ष किसे कहते हैं?
आठ कर्मों के उत्तर भेद १४८ हैं। इन्हें पूर्ण रूप से नष्ट कर देने का नाम ही "मोक्ष" है। इस मोक्ष अवस्था को प्राप्त करने के बाद कोई जीव संसार में पुनः वापस नहीं आता, वह वहीं सिद्धशिला पर अनन्त काल तक आत्म सुख का उपभोग करता रहता है। इस मोक्ष अवस्था को पाने हेतु ही दैगम्बरी दीक्षा धारण की जाती है।
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जैन परम्परा में दीक्षा की विविध श्रेणियाँ हैं जिनमें पुरुषों की तीन श्रेणी हैं मुनि, ऐलक और क्षुल्लक तिल-तुष मात्र भी परिग्रह का त्याग कर दिगम्बर हो जाने का नाम मुनि दीक्षा है। इन्हें अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करना होता है। शरीर पर एक लंगोटी मात्र धारण करने वाले "ऐलक" होते हैं। इनकी ग्यारह प्रतिमाएं होती है तथा समस्त चर्या मुनि के समान ही होती है, किन्तु लंगोटी धारण करने के कारण पंचमगुणस्थान से ऊपर नहीं पहुँच सकते। ये बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करते हैं तीसरी श्रेणी क्षुल्लक की है, जिसमें पुरुष लंगोट और चादर का परिग्रह रखते हैं। ये ऐलक और क्षुल्लक दोनों उत्तम आवक की कोटि में आते हैं और क्षुल्लक जी कटोरी या थाली में एक बार भोजन ग्रहण करते हैं।
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इसी प्रकार स्त्रियों में दीक्षा की दो श्रेणियाँ होती है— आर्यिका और क्षुल्लिका इनका वर्णन पहले किया ही जा चुका है।
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