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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ चिर स्मृतियाँ जिस प्रकार सूर्य अपनी उज्ज्वल किरणों को बिखेर कर संसार के अंधकार को दूर करता है उसी प्रकार आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपने नाम के अनुसार ही अपनी ज्ञान की किरणों को बिखेरकर अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर कर रही हैं। पूज्य माताजी (मैना) जो मेरे चाचा श्री छोटेलालजी की सबसे बड़ी पुत्री हैं, मुझसे मात्र ६ माह छोटी थीं। मेरा और उनका बचपन साथ-साथ बीता। हम दोनों ने एक साथ ही जैन पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की। मैना की बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि जो पाठ हम लोगों को कई बार पढ़ने पर भी नहीं याद हो पाता था उसे मैना एक बार में ही याद कर लेती थीं। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखकर कई बार पंडितजी कहते कि मैना जरूर एक दिन नाम रोशन करेगी। पंडितजी जब भी स्कूल में छहढाला, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढ़ाने लगते, मैना इनके एक-एक शब्द का अर्थ जानने को उत्सुक रहती और अर्थ समझकर गहन चिन्तन में लग जाती। बचपन में भी हम दोनों जब साथ बैठते तो मैना मुझसे यही प्रश्न करती रहती कि जन्म-मरण क्या होता है ? और कैसे इससे छुटकारा पाया जा सकता है। शायद मैना बचपन से ही जन्म-मरण के दुःखों को सोचकर इससे छूटने का उपाय जानने के लिए जिज्ञासु थी। पढ़ाई पूरी होने के पश्चात् मेरा तो विवाह कर दिया गया, किन्तु मैना विवाह के लिए टाल-मटोल करती रही। किन्तु मुझे क्या किसी को भी यह मालूम नहीं था कि मैना ने अपने मन में सांसारिक झंझावातों से दूर एक ऐसा मार्ग चुन लिया है जो हम सभी को कठिन क्या असंभवसा लगता है। Jain Educationa International [१५९ - श्रीमती जैनमती जैन तहसील फतेहपुर [बाराबंकी] उ०प्र० सन् १९५२ में मैं उस समय टिकैतनगर में ही थी और मेरी सबसे बड़ी पुत्री जयश्री का जन्म हुआ था, मुझे मालूम हुआ कि मैना ने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। मैंने तो समझा कि अन्य व्रत-उपवासों की तरह इसे भी पालन किया जाता होगा, किन्तु जब मुझे मालूम हुआ कि मैना अब आजीवन विवाह नहीं करेगी तो मैं रोये बिना न रह सकी। मुझे मैना के साथ पाठशाला के दिनों की सब बातें याद आने लगीं और मैं सोचने लगी कि मैने और मैना ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की, किन्तु मैं तो सांसारिक झंझटों में उलझ गयी और मैना ने आत्मकल्याण का मार्ग चुन लिया है। I बाद में जब मुझे विदित हुआ कि मैना ने क्षुल्लिका दीक्षा ले लो तो मैं अपने पिताजी के साथ दर्शन के लिये श्री महावीरजी गयी। वहीं मैना आचार्य देशभूषणजी के संघ के साथ क्षु० वीरमती के रूप में विराजमान थीं। मैं नमोस्तु करके बैठ गयी और पुनः पाठशाला से लेकर घर तक मैना के साथ की सारी बातें याद आने लगीं और मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे। लेकिन क्षुल्लिका वीरमती तो पारिवारिक मोह को छोड़कर वीर हो चुकी थीं, वह शान्त मुद्रा में बैठी रहीं और मुझसे एक शब्द भी नहीं बोलीं। कुछ समय के उपरान्त क्षु० वीरमती आर्यिका दीक्षा लेकर ज्ञानमती बन गयीं। आज जब मैं पूज्य माताजी द्वारा रचित ग्रन्थों को पढ़ती हूँ तो विचार करने लगती हूँ कि हम दोनों ने एक ही साथ शिक्षा प्राप्त की, किन्तु पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, शायद यह उन्हें पूर्व भव से प्राप्त हुआ है अथवा कोई दैवी शक्ति सरस्वती के रूप में माताजी के हृदय में वास कर रही है। उनके पावन आदर्शों पर चलकर मैं शीघ्रातिशीघ्र अपना आत्म-कल्याण कर सकूँ यही मेरी मंगलकामना है। माताजी के दर्शन का चमत्कार For Personal and Private Use Only I मैंने हस्तिनापुर में ता० ५.७.९० को आपके दर्शन किये, उसके बाद से ही मेरी सोच में कई बदलाव आये जैन होने के बावजूद भी जैन-धर्म के प्रति मेरी भावना कम थी, लेकिन मैं इसे चमत्कार ही कहूँगा कि आपके दर्शन मिलने के बाद मेरी भावना एवं सोच में कमाल के परिवर्तन हुए । मैं पहले मन्दिर भी बहुत कम जाता था, लेकिन अब शायद ही कोई दिन छूटता हो, जब मैं मन्दिर नहीं जाता हूँ । आपने मुझे णमोकार मंत्र की १२४० माला फेरने को दी थीं एवं एक यंत्रजी भी दिया था, जिसका सप्ताह में एक बार अभिषेक भी करने -- - ललित सरावगी, फारविसगंज [ बिहार ] www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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