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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२१७ "मेरी चिन्तन धारा" - फूलचन्द जैन "मधुर" सागर [म०प्र०] [३] जब से अपने इस जीवन में, समता का मधु-रस घोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ [१] देकर भौतिकता को महत्त्व, भूले थे अब तक हम स्व-तत्त्व । त्यागा जब से उन भावों को, जड़ कर्म बन्ध को खोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ [२] है ज्ञान युक्त चेतन अरूप, जाना जब से अपना स्वरूप । तब से अपने हाथों हमने, निज मुक्ति द्वार को खोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ पर में अपना कुछ स्वत्व नहीं है निज में पर का कुछ तत्त्व नहीं । यह जीव चिरन्तन अविनाशी, जग में, घट-घट में डोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ [४] पा राग-द्वेष से मुक्ति हमें, तजना जड़ की अनुरक्ति हमें । जिससे न बदलना पड़े कभी, इन पर्यायों का चोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ ज्ञानमति माताजी का देखो चमत्कार -बी० एस० जैन, फिरोजाबाद ज्ञानमति माताजी का देखो चमत्कार- भाई देखो चमत्कार अतिशयोक्त जम्बूद्वीप अद्भुताकार . . . २ बाल्य-अवस्था से तप कीना । जैन धर्म युत सुन्दर जीना । जीवन अपना किया साकार । अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार || ज्ञानमती माताजी का देखो . . . विश्व प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया । जम्बूद्वीप ने नाम कमाया । मइया का सब बोलें जयकार अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार ॥ ज्ञानमती माताजी का देखो . . . कमल का मन्दिर सुन्दर रचना । बाग बगीचा अनुपम सपना । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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