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________________ २५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सन् १९६६ (वि.सं. २०२३) सोलापुर के श्राविकाश्रम चातुर्मास में शिक्षण शिविरों के माध्यम से जो ज्ञान का अलख जगाया, वह वहाँ के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया है। वहाँ की प्रमुख ब्रह्मचारिणी पद्मश्री सुमति बाईजी एवं ब्र. कु. विद्युल्लताजी शहा ने आज भी उन पावन स्मृतियों को हृदय में संजो रखा है। सन् १९६७ (वि.सं. २०२४) में सनावद (म.प्र.) का चातुर्मास तो अधावधि जीवन्त है, क्योंकि वहाँ के श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद सर्राफ के सुपुत्र ब्र. मोतीचंदजी एवं उनके चचेरे भाई यशवन्त कुमार को अपना संघस्थ बनाकर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने मोक्षमार्ग की अनेक अमूल्य शिक्षाओं से उनके जीवन बदल दिये। जिनमें से यशवन्त कुमार को मनि वर्धमानसागर बनाने का श्रेय आपको ही है। ब्र. मोतीचंदजी क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी के रूप में अद्यावधि आपकी छत्रछाया में जम्बूद्वीप संस्थान को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार कर सतत ज्ञानाराधना में तत्पर है। जम्बूद्वीप रचना निर्माण, ज्ञानज्योति प्रवर्तन तथा पूज्य माताजी के प्रत्येक कार्यकलापों में मोतीचंदजी की प्रमुख भूमिका होने के नाते सनावद चातुर्मास हस्तिनापुर के इतिहास से सदा के लिए जुड़ गया है। पुनः संघीय मिलन - इस पंचवर्षीय भ्रमण योजना के पश्चात् आचार्य श्री शिवसागर महाराज की प्रबल प्रेरणावश ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित पुनः आचार्य संघ में पधारीं। तब आचार्य संघ के साथ सन् १९६८ (वि.सं. २०२५) का चातुर्मास राजस्थान के "प्रतापगढ़" नगर में हुआ। अनंतर अधिक दिनों तक श्री शिवसागर महारांज का सानिध्य न मिल सका, क्योंकि सन् १९६९ में ही फाल्गुन कृ. अमावस्या को श्री शान्तिवीर नगर महावीरजी में आचार्य श्री का अल्पकाली बामारी से अचानक समाधि मरण हो गया। पुनः चतुर्विध संघ ने परम्परा के वरिष्ठ मुनिराज श्री धर्मसागरजी को तृतीय पट्टाचार्य मनोनीत किया और उन्हीं के सानिध्य में शांतिवीरनगर में होने वाला पञ्चकल्याणक महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ तथा मुनि आर्यिकाओं की ११ दीक्षाएं भी उनके करकमलों से प्रथम बार सम्पन्न हुईं। आचार्य श्री धर्मसागरजी के साथ भी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के लिए आचार्य श्री शिवसागरजी के समान ही धर्मसागरजी महाराज भी गुरु भाई थे, क्योंकि ये भी आचार्य श्री वीरसागर महाराज द्वारा दीक्षित मुनि शिष्य थे । होनहार की प्रबलता कहें या काल रोष, द्वितीय पट्टाचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की समाधि के पश्चात् यह विशाल संघ २-३ टुकड़ों में बंट गया। आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महाराज, अजितसागरजी, सुबुद्धि सागरजी श्रेयांस सागरजी आदि अनेक साधु तथा विशुद्धमती माताजी आदि कई आर्यिकाएं संघ से अलग हो गए। किन्तु आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी नूतन आचार्यश्री के आग्रह पर उसी संघ में रहीं । चतुर्मुखी प्रतिभा से सम्पन्न अलग विहार एवं धर्म प्रभावना में कुशल तथा संघ की अपेक्षा अलग रहकर समाज को अधिक लाभ देने में सक्षम साधुगण प्रायः अपने दीक्षागुरु तक के अनुशासन में रहने में परतंत्रता और कठिनाई का अनुभव करते हैं, किन्तु माताजी प्रारंभ से ही हर प्रकार के माहौल में रहने की अभ्यस्त रही हैं, क्योंकि उनका तो लक्ष्य मात्र यही रहा कि "दीक्षा प्रभावना के लिए नहीं, आत्म-कल्याण के लिए ग्रहण की जाती है।" Jain Educationa International सन् १९६९ (वि.सं. २०२६) में आचार्य श्री धर्मसागरजी के साथ ही माताजी का चातुर्मास भी जयपुर के बख्शी चौक में हुआ। यहाँ मैंने प्रथम बार ज्ञानमती माताजी के दर्शन किए थे, जिसकी आज भी मुझे परी स्मृति है। मैंने वहाँ देखा था कि माताजी दिन के ६ घंटे मुनि आर्यिका आदि को अष्टसहस्त्री, कातंत्र व्याकरण, राजवार्तिक आदि कई ग्रंथों का अध्ययन कराती थीं एक आचार्य संघ में साधुओं के शिक्षण की विधिवत् व्यवस्था का वह अनुकरणीय उदाहरण था। यह समुचित क्रम चला सन १९७१ के अजमेर चातुर्मास तक इससे पूर्व टोंक (राज.) में सन् १९७० का चातुर्मास भी आचार्यसंघ के साथ ही माताजी ने किया। घड़ी, दिन, महीने और वर्षों ने अब संघ की वृद्धि में भी चार चाँद लगा दिए थे। अजमेर चातुर्मास के मध्य भी कई दीक्षाएं हुई, जिसमें माताजी की गृहस्थावस्था की माँ मोहिनी देवी ने भी अपने विशाल परिवार का मोह छोड़कर आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर 'रत्नमती' नाम प्राप्त किया था। मोइनिया इस्लामिया स्कूल के विशाल प्रांगण में ज्ञानमती माताजी ने अत्यन्त निर्ममतापूर्वक अपनी माता का केशलोंच किया था। वहाँ की जनता रो रही थी. परिवार बिलख रहा था, हम सभी बच्चे मां की ममता पाने को तरस रहे थे, किन्तु ज्ञानमती माताजी और बनने वाली रत्नमती माताजी के चेहरों पर अपूर्वं चमक तथा प्रसन्नता थी, जो कि सांसारिक राग पर विजयश्री प्राप्त करने की बात स्पष्ट झलका रही थीं। इसके बाद पुत्री और माता का संबंध गुरु और शिष्य में परिवर्तित हो गया था। 1. For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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