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________________ ९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला श्रुतकेवली : ज्ञानमती माताजी -पं० जवाहरलाल शास्त्री, भीण्डर पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में सर्वश्रेष्ठ गणिनी आर्यिका हैं। इनका अपना अनूठा ज्ञान इनका ही है। इनकी समानता न्यायशास्त्रों में कोई नहीं कर सकता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जैसे सर्वमान्य ग्रन्थ में लिखा है कि विद्वान् लोग अष्टसहस्री को कष्टसहस्री कहते हैं। इसका अनुवाद व इसके क्वचित् किंचित् प्रमेयों का अवबोध विद्वानों के लिए भी दुःखगम्य माना जाता व स्वीकारा जाता है, परन्तु उसी अष्टसहस्री का भाषानुवाद सर्वप्रथम माता ज्ञानमती ने करके संसार के लिए परमार्थतः उपकार का कार्य किया है। अष्टसहस्री के आद्य अनूदित पत्रों को देखकर पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, काशी ने भी माताजी की प्रशंसा की थी तथा अनुवाद को प्रामाणिक बताया था। माताजी को स्व. पं० मक्खनलालजी ने तो एक बार "श्रुतकेवली" (वत्) कह दिया था। यह है आपकी ज्ञान गरिमा । एवमेव आपने नियमसारादि ग्रन्थों की संस्कृत-हिन्दी टीकाओं सहित कुल लगभग एक सौ ग्रन्थों की रचना करके भारतीय जैन-साहित्य के संवर्द्धन में तथा महिलाओं के गौरव उन्नयन में अनुपम व अद्वितीय कार्य किया है। पूज्य माताजी के दर्शनों का तीन बार मुझे अवसर मिला था- एक प्रशिक्षण-शिविर (१९८३) के समय, दूसरा यात्रा (मार्च १९८५) के समय और तीसरा (मार्च ८७) मेरे हस्तिनापुर अल्पकालिक प्रवास के समय, तीनों ही समय माताजी के साथ सानिध्य के दौरान मैंने इनमें वात्सल्य, सरलता, स्वाभिमान, गुणानुरागिता, संयम-परायणता आदि पाए, जिनमें वात्सल्य गुण आपमें कूट-कूट कर भरा पाया। इन तीनों समयों में आपने मुझे नैकट्य व योग्य निजत्व प्रदान किया था, वह मेरी स्मृति-पटल की मञ्जुल रेखाओं पर सदा अंकित रहेगा। आपके साथ में आर्यिका संघ भी है। एकान्त में स्थित व धर्म-कर्म क्षेत्रस्वरूप हस्तिनापुरी को आपने साधना का एक धाम बनाया है, सो हस्तिनापुर तो वस्तुतः है भी साधना का समुचित क्षेत्र ही। आपकी प्रेरणा से उपक्रम प्राप्त “सम्यग्ज्ञान" पत्रिका भविष्य में भी आपकी स्मारिका रहेगी, जो वहीं से प्रकाशित/वितरित होती है। आप सदा स्वस्थ व प्रसन्न रहें तथा आपका रत्नत्रय संवर्धमान रहे, यही मेरी त्रिकाल त्रिधा भावना है। आपका ज्ञान सबके लिए दीपस्तम्भ बन जाये, जिससे कोई भी मार्गान्वेषी भव्य गिरने न पाए-बढ़ता ही चला जाये। सुभास्ते पन्थानः, भद्र भूयात् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ शिक्षण शिविर की याद -पं० हेमचन्द जैन शास्त्री, अजमेर साल-संवत् तो कुछ याद नहीं आता, परन्तु इतना याद है कि परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा आयोजित सर्वप्रथम "शिक्षण शिविर" का आमंत्रण मुझे दिया गया था। यद्यपि मेरा इन अस्थायी कार्यक्रमों में कोई विशेष आकर्षण नहीं रहा है, फिर भी अपनी ओर के जैन समाज में यह पहला उद्यम था और सर्वोपरि पूज्य माताजी का आदेश रहा, मैंने शिक्षण शिविर में सम्मिलित होने की स्वीकृति दे दी और यथासमय हस्तिनापुर पहुँच गया। संभवतः यह दशहरे के अवकाश के आस-पास का ही समय था। अध्यापकों के सावकाश का समय रहा। पं० श्री बाबूलालजी जमादार और श्री सेठ गणेशी लालजी रानीवाला इसके प्रमुख कर्णधार रहे ! पूज्य माताजी का यह प्रयास एक योजनाबद्ध रूप में रहा। वे चाहती थी कि अपने समाज के सभी विद्वान् कभी-कभी एक साथ मिलें और उनके विचारों को एक सूत्र में एकत्रित किया जाये। कितने विद्वान् शिक्षण देने योग्य हैं और कितने शिक्षण पाने के पात्र हैं, इसका विभाजन हो जाये तो कुछ ही समय में विद्वानों की क्षमता एवं धर्मप्रचार-प्रसार वृत्ति आसानी से सुलझ सकती है। इसके लिए भारत के सभी प्रदेशों से विद्वानों को आमंत्रित किया गया और शताधिक विद्वान् आ भी गये थे। इन विद्वानों की आवास-भोजन आदि की सुन्दर व्यवस्था रही। इस शिक्षण शिविर के प्रमुख विषय ८ रहे और माताजी ने एक मार्गदर्शिका पहले ही सप्रमाण विवरण की छपवाकर तैयार करा ली थी। मुझे भी यह Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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