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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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इस ग्रन्थ में समाहित किया गया है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में पूरे अध्याय के सार को प्रकट करने वाले सारांश बनाए हैं जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन 'सभी कारणों से अब इस ग्रन्थ को सर्वांगीण कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ग्रन्थ समायोजना का क्रम इस प्रकार बनाया गया है कि प्रत्येक पाठक ग्रन्थ खोलकर सहज ही महत्त्वपूर्ण अर्थ का रसास्वादन ले सकता है।
यह पुष्प ६६० पत्रों में संवर अधिकार तक समयसार पूर्वार्द्ध के रूप में हस्तिनापुर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान से प्राप्य है, उत्तरार्द्ध भी इन्हीं समस्त विशेषताओं के साथ प्रकाशनाधीन है। इसके स्वाध्याय से निश्चित ही आपका अन्तःकरण पवित्र होगा और समयसारमय-निर्विकल्पध्यानी महामुनि बनने की भावना जाग्रत होगी।
___ कलिकाल के सर्वज्ञ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की मूल कृति पर पांच लेखक साधुओं (दो दिगम्बर मुनि एवं तीन आर्यिका) की समष्टि का अनोखा स्वरूप पूज्य ज्ञानमती माताजी ने एक ही ग्रन्थ में समाहित किया है। ज्ञानज्योति टीका से समन्वित प्रस्तुत अध्यात्मग्रन्थ हम सबके जीवन में ज्ञान और वैराग्य की ज्योति को प्रस्फुटित करे यही अन्तर्भावना है।
'नियमसार' की आर्यिका ज्ञानमतीकृत 'स्याद्वादचन्द्रिका' टीका
समीक्षक- डॉ० जयकुमार जैन
स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग सनातन धर्म कालेज,मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
'मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गोतमो गणी।
मङ्गलं कुन्दकुन्दायो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम्॥ किसी भी मङ्गल कार्य के पूर्व जैनधर्मावलम्बियों में उक्त श्लोक के पुण्यस्मरण की परम्परा है। स्पष्ट है कि भगवान् महावीर और उनकी दिव्यध्वनि के धारक एवं द्वादशाङ्ग आगम के प्रणेता गौतम गणधर के बाद जैनधर्म में कुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता दी गई है । कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक, प्राकृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभू तथा तर्कप्रधान आध्यात्मिक साहित्य के युगप्रधान आचार्य हैं। अध्यात्म जैन वाङ्मय एवं प्राकृत साहित्य के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है। उनका माहात्म्य इसी से जाना जा सकता है कि उनकी पश्चाद्वर्ती आचार्य परम्परा दो हजार वर्ष बाद भी अपने को कुन्दकुन्दान्वयी या कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवित समझती है।
विपुल साहित्य निर्माण की दृष्टि से न केवल प्राकृत भाषा में, अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में कुन्दकुन्दाचार्य अग्रणी हैं। उन्होंने अध्यात्मविषयक और तत्त्वज्ञान विषयक दोनों प्रकार के साहित्य की रचना
की है। निम्नलिखित ग्रन्थ निर्विवाद रूप से कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रणीत माने जाते हैं--प्रवचनसार, समयसार, पञ्चासितकाय , द्वादशानुप्रेक्षा, अष्टप्राभृत एवं दशभक्ति। इनके अतिरिक्त रयणसार को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत माना जाता है, किन्तु भाषा-शैली आदि में अन्तर होने से कुछ विद्वान् इसे कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत होने में संदेह करते हैं। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी मूलाचार को भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानती हैं।
ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद ने १९१५ ई० में प्रकाशित नियमसार की भूमिका में लिखा है कि- "आज तक श्री कुन्दकुन्दाचार्य के पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार-यह तीन रत्न ही अधिक प्रसिद्ध हैं। खेद की बात है कि उन्हीं जैसा, बल्कि कुछ अंशों में उनसे भी विशेष नियमसार रत्न है। उसकी प्रसिद्धि इतनी अल्प है कि कोई-कोई तो उसका नाम भी नहीं जानते।" श्री ब्रह्मचारीजी का यह कथन असत्य नहीं है। नियमसार की इस अप्रसिद्धि का कारण संभवतः यही है कि इसकी कोई ऐसी संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं रही है, जो आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक दोनों हस्तियों को सुस्पष्ट करती हो। नियमसार पर ईसा की बारहवीं शताब्दी (११४० ई०) के श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित एकमात्र संस्कृत टीका "तात्पर्यवृत्ति' उपलब्ध थी। इस टीका में कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य की आध्यात्मिक पद्धति का अनुसरण करते हुए उसी सरणि को अपनाया गया है। अमृतचन्द्राचार्य द्वारा अपनी टीका में प्रयुक्त कलशों के समान तात्पर्यवृत्ति में भी अपसंहृति में श्लोकों द्वारा उसके हार्द को प्रकट किया गया है। ये आलंकारिक श्लोक गूढ तत्त्वज्ञान को सरल एवं रोचक तो बनाते हैं, किन्तु अध्यात्म के साथ सिद्धान्त की संगति में अधिक सहायक नहीं हैं। 'तात्पर्यवृत्ति' मात्र अध्यात्मपरक है। कदाचित् इसी कमी को पूरा करने के लिए पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने नियमसार पर 'स्याद्वादचन्द्रिका' नामक टीका लिखी है, जो
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