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________________ ४१२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला १९८५ ई० में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुई है। पूज्य माताजी ने कुन्दकुन्दाचार्य के सुपरिचित एवं स्फुट्टीकाकार जयसेनाचार्य का अनुकरण करते हुए खण्डान्वय एवं दण्डान्वय की पद्धति को अपनाया है। इससे मूल गाथा का शाब्दिक अर्थ एवं उसका विशेष अभिप्राय एकदम स्पष्ट हो जाता है। उनकी इस ‘स्याद्वादचन्द्रिका' में आध्यात्मिक दृष्टि के साथ-साथ सैद्धान्तिक दृष्टि भी समन्वित है। अतः यह टीका सिद्धान्तशास्त्र के अध्येताओं तथा अध्यात्मशास्त्र के रसिकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। अध्यात्म में प्रवेशेच्छुओं के लिए तो यह अत्यन्त सहायक है। जो लोग अमृतचन्द्राचार्यकृत समयसारादि की आध्यामिक टीकाओं के आधार पर शुभोपयोग को हेय समझने लगते हैं, उन्हें प्रवचनसार की ७७वीं गाथा को सावधानी से हृदयङ्गम करना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि पुण्य और पाप में अन्तर न समझने वाले मोही अपार घोर संसार में सतत परिभ्रमण करते रहते हैं। कुन्दकुन्द का यह हार्द माताजी द्वारा विरचित नियमसार की टीका में अत्यन्त स्पष्ट है । जो 'स्याद्वादचन्द्रिका' को पढ़ने के पश्चात् अमृतचन्द्राचार्यकृत अध्यात्मपरक टीकाओं को पढ़ेंगे, वे निश्चित रूप से कुन्दकुन्द के अभिप्राय को स्वाभिप्रायी बनाने से तथा अपने एकान्त दृष्टिविष से समाज को दग्ध करने से भीत होंगे। नियमसार नाम के सार्थक्य को स्पष्ट करते स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है "णियमेण यजं कजं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।" अर्थात् नियम से जो कार्य करणीय है, वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। विपरीत की निवृत्ति के लिए इसमें सार शब्द जोड़ा गया है। स्याद्वादचन्द्रिका' में इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर १२वें क्षीणकषाय या १३वें अयोगकेवली गुणस्थान-पर्यंत सभी मुनिराज भेदाभेदरत्नत्रय के अनुष्ठाता होने से नियमसार कहलाते हैं। 'स्याद्वादचन्द्रिका' किसी जैन साध्वी द्वारा विरचित प्रथम संस्कृत टीका होते हुए भी अपनी सरलता, प्रासादिकता, प्रभावकता एवं प्राञ्जलता के कारण संस्कृत टीका साहित्य में निश्चित ही महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होगी। इसका नामकरण सार्धक है। माताजी ने स्वयं लिखा है कि यह ग्रन्थ नियम रूपी कुमुद को विकसित करने के लिए चन्द्रमा का उदय है, अतः नियम कुमुदचन्द्रोदय है। अथवा यति रूपी कैख को विकसित करने के लिए पूर्णिमा का निशीथचन्द्र होने से यतिकैरवचन्द्रोदय है। इसमें पद-पद पर व्यवहार-निश्चय नयों की, व्यवहार-निश्चय क्रियाओं की और व्यवहार-निश्चय मार्ग की पारस्परिक मैत्री स्याद्वाद पद्धति से वर्णित है। यह टीका चन्द्रोदय की चन्द्रिका के समान सुशोभित है, अतः यह 'स्याद्वादचन्द्रिका' इस सार्थक नाम को प्राप्त है।२ ___ सम्पूर्ण नियमसार की १८७ गाथायें बारह अधिकारों में विभक्त हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं- १. जीव, २. अजीव, ३. शुद्धभाव, ४. व्यवहारचारित्र, ५. परमार्थप्रतिक्रमण, ६. निश्चय प्रत्याख्यान, ७. परम आलोचना, ८. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित, ९. परम समाधि, १०. परम भक्ति, ११. निश्चय परम आवश्यक, १२. शुद्ध उपयोग। अन्तिम शुद्धोपयोग अधिकार को माताजी ने मोक्षाधिकार कहा है, क्योंकि इसमें निर्वाण का वर्णन है। तथापि परम्परा प्राप्त शुद्धोपयोगाधिकारत्व भी सिद्ध किया गया है। सम्पूर्ण १८७ गाथाओं को माताजी ने व्यवहार मोक्ष-मार्ग, निश्चय मोक्षमार्ग और मोक्ष नामक तीन महाधिकारों में विभक्त करके उनमें क्रमशः ७६, ८२ और २९ गाथायें रखी हैं, यह माताजी द्वारा किया गया उनका अपना विभाजन है, जो सम्पूर्ण ग्रन्थ की मोक्षपरकता सुस्पष्ट कर देता है। अधिकारों में भी ३७ अंतराधिकारों के समावेश से टीका की उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है। कुन्दकुन्दाचार्य की समयसार 'प्रवचनसार' नियमसार आदि सभी रचनाओं में यथावश्यक व्यवहारनय और शुद्धनय का अवलम्बन लिया गया है। स्याद्वादचन्द्रिका टीका में सर्वत्र नयविवक्षा की स्पष्ट संघटना दृष्टिगोचर होती है, अतः इसमें एकान्त में भटकाव का सन्देह नहीं रहता है। माताजी ने आद्य उपोद्घात में स्वयं लिखा है- 'इस टीका में एकान्त दुराग्रह को दूरकर उभयनयों में परस्पर मैत्री स्थापित की गई है, अतः यह ग्रन्थ सर्व अध्यात्मप्रियजनों को प्रिय होगा-ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।' विभिन्न प्रकरणों में गुणस्थानों में की गई सैद्धान्तिक संघटना से विषयवस्तु एकदम ज्ञात हो जाती है। 'स्याद्वादचन्द्रिका' के पञ्चश्लोकात्मक मङ्गलाचरण में जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी, गणधर एवं कुन्दकुन्दाचार्य को नमस्कार करके देव-शास्त्र-गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करके माताजी ने भेदाभेदरत्नत्रय को पाने की अभिलाषा व्यक्त की है। गाथा के पूर्व प्रयुक्त उत्थानिकायें गाथा के प्रतिपाद्य को कहने में समर्थ हैं। माताजी द्वारा विरचित 'स्याद्वादचन्द्रिका' में प्राचीन आचार्यों की शैली का अनुकरण करते हुए शब्दों की व्याकरणसम्मत व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं, जो शास्त्रज्ञों को भी मस्तिष्क का व्यायाम करा देती हैं। इस सन्दर्भ में प्रथम गाथा की टीका में 'वीर' शब्द की व्युत्पत्तियां द्रष्टव्य हैं १. 'वि विशिष्टा ई लक्ष्मीः अंतरङ्गानन्तत्रचतुष्टय-विभूतिः बहिरङ्गसमवसरणादिरूपा च सम्पत्तिः तां राति ददातीति वीरः।' अर्थात् विशिष्ट लक्ष्मी अन्तरङ्ग अनन्तचतुष्टय विभूति और बहिरङ्ग समवसरणादिरूप सम्पत्ति को जो देते हैं, वे वीर हैं। २. 'विशिष्टेन ईर्ते सकलपदार्थसमूहं प्रत्यक्षीकरोतीति वीरः।' अर्थात् जो विशेष प्रकार से सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं, वे वीर हैं। ३. 'वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन, विजयते इति वीरः।' अर्थात् जो कर्मशत्रुओं को जीतते हैं,वे वीर हैं। १. 'प्रमत्तसंयतगुणस्थानात् प्रारभ्यायोगकेवलिपर्यन्ताः संयता नियमसारा भवन्ति क्षीणकषायान्ता वा, भेदाभेदरत्नत्रयानुष्ठानत्वात्।'-नियमसारप्राभृत गाथा ३ की स्याद्वादचन्द्रिका पृ० ११. २. नियमसार, गाथा १८७ की टीका, पृ० ५५३. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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