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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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अप्रकाशित ग्रंथ
लघीयस्त्रयादि संग्रहः- श्री अकलंकदेव ने इसमें प्रमाण, नय और प्रवचन इन तीन विषयों का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। इसमें इन्हीं आचार्य देव की स्वोपज्ञविवृत्ति नाम से टीका का भी हिंदी अनुवाद किया है। श्री अभयनंदिसूरि ने इस पर तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। इन दोनों टीकाओं
का उसमें अनुवाद है। २. अष्टसहस्रीसार:- अष्टसहस्री ग्रंथ के जो मुख्य-मुख्य विषय आये हैं उनको सार रूप में इसमें दिया गया है ऐसे ये त्रेसठ सारांश हैं। जैसे
नैयायिक ने शब्द को आकाश का गुण अमूर्तिक माना है, जैनाचार्य ने इसका खंडन करके शब्द को पुद्गल की पर्याय होने से मूर्तिक सिद्ध किया है। आप्तमीमांसा:- इसमें श्रीसमंतभद्र स्वामी ने आप्त को न्याय की कसौटी पर कसकर सच्चे देव सिद्ध किया है। इसमें ११४ कारिकाओं का अन्वयार्थ, पद्यानुवाद, अर्थ और भावार्थ भी दिया गया है। पात्रकेसरी स्तोत्र:- श्रीपात्रकेसरी आचार्य ने ५० श्लोकों में अर्हतदेव की स्तुति करते हुये अन्य संप्रदायों का निराकरण करके जैन संप्रदाय को सार्वभौम धर्म सिद्ध किया है। इस स्तुति का माताजी द्वारा रचित पद्यानुवाद स्तुति के भाव को अच्छा प्रस्फुटित कर रहा है। आलापपद्धतिः- इसमें श्री देवसेन आचार्य ने नयों के नव भेद करके उनके अवान्तर भेद चौंतीस किये हैं। आस्तित्व वस्तुत्व आदि सामान्य गुण
और चेतनत्व आदि विशेष गुणों का नाना पर्यायों का भी विवेचन है। इसका हिंदी अनुवाद माताजी ने सनावद के सन् १९६७ के चातुर्मास में किया था। ६. भावसंग्रहः- श्रीवामदेव पंडित ने संस्कृत में इस पंथ को रचा है। इसमें औषशमिक आदि पाँच प्रकार के भावों का चौदह गुणस्थानों में विवेचन
है। विशेष कर पांचवें गुणस्थान के वर्णन में श्रावकों की पूजा, दान आदि क्रियाओं का अच्छा विवेचन है। विधिपूर्वक देवपूजा को ही श्रावक
की सामयिक क्रिया कहा है। इसका अनुवाद माताजी ने सन् १९७३ में किया था। एक प्रकार से यह बहुत ही सुंदर श्रावकाचार है। ७. आस्तवत्रिभंगी:- पांच मिथ्यात्व आदि से आस्तव के ५७ भेद हैं। इन्हें चौदह गुणस्थान और मार्गणाओं में घटाया है और चार्ट भी दिये गये
हैं। यह श्रीश्रुतमुनि की रचना है। माताजी ने सन् १९७३ में इसका अनुवाद किया है। नियमसार कलश:- नियमसार श्री कुंदकुंददेवकृत है। इसकी टीका श्रीपद्यप्रक्षमलधारी देव नाम के आचार्य ने की है। इस टीका में बहुत ही सुंदर पद्य आये हैं। उन्हें लेकर 'नियमसार कलश' नाम देकर माताजी ने हिंदी अर्थ किया है। सन् १९७६ में यह अनुवाद हुआ है। समयसार प्राभृतः- इस श्री कुंदकुंददेवकृत समयसार में श्री अमृतचंद्रसूरि और श्री जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीकायें हैं। इन पर माताजी ने 'ज्ञानज्योति' नाम से टीका लिखी है। पूर्वार्द्ध में संवर अधिकार तक लिये हैं, वह सन् १९९० में छप चुका है। उत्तरार्द्ध अभी अप्रकाशित है। जैनेन्द्र प्रक्रिया पूवार्द्ध:- श्री पूज्यपाद स्वामीकृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' के सूत्रों पर श्री गुणनन्दि आचार्य ने 'जैनेन्द्र प्रक्रिया' नाम से टीका रची है। इसको संघ में माताजी ने मुनियों-आर्यिकाओं आदि को पढ़ाया था। सन् १९७५ में हस्तिनापुर में माताजी ने इसका अनुवाद किया है। द्रव्यसंग्रहसार:- श्री नेमिचन्द्राचार्य रचित द्रव्यसंग्रह का माताजी ने पद्यानुवाद किया था, उनके साथ ही कुछ विशेष विस्तार करके यह द्रव्य संग्रह सार पुस्तक लिखी है। तत्त्वार्थसूत्र एक अध्ययन:- श्रीउमास्वामी आचार्य द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर यह विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ के आधार से है। समयसार का सार:- श्रीकुंदकुंददेव विरचित समयसार का सार रूप यह नवनीत माताजी द्वारा लिखा गया है। इसको पढ़कर यदि समयसार का स्वाध्याय करेंगे तो बहुत ही सुगमता रहेगी। अतः यह समयसार की कुंजी ही है। मूलाचार का सार:- मुनियों के आचार ग्रंथों में सर्वोपरि यह मूलाचार ग्रंथ माताजी द्वारा अनुवादित होकर 'भारतीय ज्ञानपीट' से छप चुका है। इस पूरे ग्रंथ का सार लेकर नवनीत रूप में यह मूलाचार का सार बताया है। इसको पढ़कर मूलाचार ग्रंथ का स्वाध्याय करने से बहुत ही सरलता रहेगी। षट्आवश्यक क्रियाः- मूलाचार ग्रंथ के आधार से मुनि-आर्यिकाओं की छह आवश्यक क्रियाओं का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। नवदेवता विधानः- ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ हैं। इनमें होने वाले अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम,
जिनचैत्य और चैत्यालय इन नवदेवताओं की इस विधान में छह पूजायें हैं। १७. बीस तीर्थकर विधानः- पाँच महाविदेहों में ४-४ तीर्थंकर आज भी विहार कर रहे हैं। इन विद्यमान बीस तीर्थंकरों की पूजायें हैं। इस विधान
में छह पूजायें हैं।
नंदीश्वर विधान:- इसमें आठवें नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनमंदिरों की ५ पूजायें हैं। १९. पंच कल्याणक विधानः- इसमें उत्तर पुराण के आधार से चौबीस तीर्थंकरों के पाँचों कल्याणकों को पाँच पूजायें एवं एक समुच्चय पूजा ऐसी
छह पूजायें हैं। २०. श्रुतस्कंध विधान:- इसमें ग्यारह अंग, चौदह पूर्व और पाँच चूलिकाओं के अर्घ्य हैं । पूजा एक है। यह विधान श्रुतज्ञान को वृद्धिंगत करने वाला है।
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