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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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बाहुबली भरत से अधिक लंबे होने से दृष्टि युद्ध में विजयी हुए और इसी तरह जल प्रहार में भी विजयी रहे । मल्लयुद्ध में भी अधिक शक्तिशाली होने से उन्होंने एक दांव लगाकर भरत को दोनों हाथों से ऊपर उठा लिया। सभी लोग स्तब्ध रह गए। बस, एक क्षण बाद ही बाहुबली भरत को धरती पर पछाड़ देंगे, इन्हीं संभावनाओं-आशंकाओं से लोग भयभीत थे। तभी लोगों ने देखा बाहुबली ने भरत को अपने कंधों पर वैसे ही बैठा लिया जैसे कोई अपने पूज्य को ससम्मान कंधे पर बैठा ले। ज्यों ही बाहुबली ने भरत को ऊपर उछालकर बाहों में उठाया तभी उनका विवेक जाग्रत हो उठा वे सोच सके।
“छ खंड वसुधापति अग्रज की अविनय करना उचित नहीं।
अतः बिठाया निज कंधे पर गौरव को रख लिया सही॥ पर बाहुबली का यह विवेक भरत को अपमान ही लगा। पराजित भरत को क्रोध ने अंधा कर दिया और वह अपकृत्य कर बैठे जिसकी कल्पना ही नहीं थी। वे चक्ररत्न का प्रहार कर बैठे। पर चक्ररत्न ने अपनी मर्यादा नहीं तोड़ी। कुटुंब पर नहीं चला। उल्टे बाहुबली की दक्षिणा देकर लौट आया। यद्यपि बाहुबली की कोई क्षति नहीं हुई पर उनका मन खिन्न हो उठा। इस घटना ने उनका मन वैराग्य से भर दिया। संसार के व्यवहार, धनलिप्सा इतना नीचे गिरा सकती है यह भाव उन्हें संसार से विरक्त कर गया
"धिक धिक राज्य योग सुख वैभव भ्रात प्रेम का घात करें।
धिक् धिक् मोह महामायामम इन्द्रिय सुख बहुदुख भरे ॥ बस! वैराग्य की परतें खुलती चली गईं। संसार की मोह माया, स्वार्थ भोग-विलास सभी की क्षणभंगुरता, विनाश के दृश्य मूर्त होते गये। वैराग्य की दृढ़ता बढ़ी---भोगों की परतें टूटी एक ही विचार दृढ़ हुआ कि यह वैभव भोग निरर्थक हैं क्षणभंगुर हैं।
"वेश्या सम इस लक्ष्मी को पा इसको अचला मान अरे । अच्छिष्ट भोगी बन करके भी वैभव का अभिमान करे। अथिर राज्य है इन्द्र जाल सम स्वप्र सदृश हैं भोग मधुर ।
पुत्र मित्र परिजन पुरजन सब प्रेम करें हैं स्वार्थ चतुर ॥ इस प्रकार समस्त वैभव को त्याग कर बाहुबली अपने तपस्वी पिता के पद चिन्हों पर चल पड़े। इधर क्रोध शांत होते ही भरत अपने कृत्य पर पछताने लगे। उनका मन पश्चाताप से भर गया वे विह्वल हो उठे
"भरत हृदय में चक्ररत्न भी असह्य दुख स्वरूप हुआ। बाहुबली वच श्रवण से हृदय शोक पूर्ण दुखरूप हुआ। भातृप्रेम की गंगा ही क्या भीतर नहीं समाती है। नेत्र मार्ग से बहकर के ही पृथ्वी तल पर आती है। क्रोध मान कुछ क्षण पहले का मोद प्रेम में बदल गया। मन बहु पश्चाताप कर रहा बंधु भाव भी प्रखर हुआ। अहो भ्रात! तुम बिन पृथ्वी पर भोग मुझे क्या रुचिकर है?
दीक्षा का यह समय नहीं है यह चर्चा मम दुखकर है। पर वैरागी मन अब संसार में था ही कब? बाहुबली ने सबकी क्षमा याचना की और दीक्षा ग्रहण की। पूरे परिवार में मोहवश रुदन-हाहाकार मच गया। एक क्षण पूर्व जो समरभूमि थी वह वियोग-विलाप की भूमि बन गई। बाहुबली कामदेव का दीक्षा ग्रहण तीन लोक के लिए कितना विलापमयी था।
"परिजन रोये पुरजन रोये जग का भी कण कण रोया।
भरत हृदय अति द्रवित हो गया देवों का भी मन रोया ॥ अरे! प्रकृति का कण-कण भी इस वियोग में द्रवित था
"उसी समय से पृथ्वी देवी नदियों के कल कल रव से।
रुदन कर रही है ही मानो शोक पूर्ण कष्ट स्वर से ॥" आखिर बाहुबली ने कैलाश पर्वत पर जाकर दीक्षा ग्रहण की और एक वर्ष का महायोग धारण कर निश्चल खड़े रहे। इधर चक्रवर्ती का वैभव भोगते हुए भी भरत जल में कमलवत् धर्माराधना में जीवन व्यतीत करते रहे।
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