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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भगवान बाहुबली समीक्षक - डॉ. शेखर जैन, अहमदाबाद भगवान बाहुबली गणिनी ज्ञानमतीजी की काव्यकृति का प्रतिबिंब है। कवयित्री ने भरत-बाहुबली की पौराणिक कथा को इतिवृत्तात्मक रूप से कविता द्वारा प्रस्तुत किया है। जहाँ तक कथा तत्त्व की बात है वह पौराणिक कथा है जो बहुश्रुत है, प्रायः सभी इस कथा से परिचित हैं। पर ऐसे महापुरुषों की कथा प्राचीन होने पर भी चिर नूतन बनी रहती है। उसका संदेश हर युग के अनुरूप होता है। सच तो यह है कि ऐसे चरित्र ही हमारी संस्कृति की धरोहर होते हैं। बाहुबली का जीवन आज भी त्यागतप का संदेश दे रहा है। कृति का प्रारम्भ आदिनाथ की वंदना से किया गया है, जो मंगलाचरण है। जैन दर्शन के मूल में ही विश्व मंगल की कामना निहित है। कवयित्री आदि जिनेश्वर की परम्परा में तीर्थंकर, आचार्यों की गुरुवंदना करके कृति की रचना का संकल्प व्यक्त करती हैं। भ. ऋषभदेव इस काल के आदि प्रवर्तक तो थे ही-संस्कृति के पुरस्कर्ता भी थे। लोगों को जीवन यापन की शिक्षा-विद्या आदि ज्ञान देकर स्वावलंबन का बोध दिया। यह स्वावलंबन उनकी त्रिकालजयी शिक्षा है, जो आज भी प्रस्तुत है। ___भ० ऋषभदेव अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्यारूढ़ करके एवं बाहुबली को दक्षिण का राज्य देकर आत्म कल्याण के पथ पर आरूढ़ हुए। भरत चक्रवर्ती हुए, राज्य सुख के साथ धर्माराधना को करते रहे। "चौदह रत्न के सहस-सहस सुर रक्षक विभव विशालता । भरतेश्वर प्रमुदित मन अनुदिन रुचि से जिनपूजन करता ।। दानशील उपवास महोत्सव गृहि षट्कर्मी उदारता । बहु पुण्योदय भोगी ज्ञानी चित्सुख अनुभव सुलीनता ।। भरतेश्वर का वैभव बढ़ा। पर अभी पूर्ण चक्रवर्ती कहाँ बन पाये थे तभी तो चक्ररत्न पुर के बाहर ही रुक गया। कारण था, अभी तक बाहुबली पराजित कहाँ हुए थे? मंत्रणा हुई और दूत को भेजा गया बाहुबली के पास। प्रच्छन्न आदेश था शरणागति स्वीकारने का । धक्का-सा लगा बाहुबली को। राजसी स्वभाव सागर में स्वाभिमान की तरंगें उठीं। हृदय आलोडित हो उठा षट् खंडधिप चक्रेश्वर हैं रहे हमें तो क्या करना। राजनीति से राज राज कह नहिं लेना उनका शरना । पूज्य पिता कृत है गौरव मम फिर भी यदि गर्विष्ठ भरत । वश करना चाहें मुझको तो रण में ही हो शक्ति विदित ॥ आखिर राज्य सत्ता के अहम् ने भरत को युद्ध करने को प्रोत्साहित किया। रणभेरी बज उठीं। दोनों महान् योद्धाओं के इस जय-पराजय की संभावनाओं से भरे युद्ध को देखने सुर-नर इन्द्र सभी दौड़ पड़े। दोनों और चतुरंगिणी सेना का सागर ही लहर उठा। वीरों की हुँकारे गूंज उठीं। दोनों ओर से अपने-अपने महावीर की शक्ति के गुणगान विरुदावली के स्वर मुखरित होने लगे। दोनों ही महान् योद्धा थे। "चरम शरीर आदीश्वर सुत आदि चक्रपति आदि मदन । उभय भ्रात को इस ही भव में करेगी मुक्ति रमावरण ॥ युद्ध की भयानकता और दुष्परिणाम से सभी चिंतित थे। रक्त की नदियां बहने की कल्पना से लोग भयभीत थे। आखिर दो भाइयों के झगड़े में व्यर्थ का रक्तपात क्यों हो? यह शुभ विचार आने पर दोनों ओर के मंत्रीगणों ने विमर्श किया, वे जानते थे कि युद्ध विनाश ही लायेगा असंख्य प्राणी-हिंसा होगी महा कदन यह करने से। प्रजा हानि सर्वस्य हानि सम धैर्य हानि के बढ़ने से ॥ - आखिर निर्णय हुआ कि कि दोनों भाई युद्ध कर लें। जो जीतेगा उसी की विजय मानी जायेगी। निश्चय किया गया कि दोनों में दृष्टि युद्ध, जल युद्ध व मल्लयुद्ध किया जाये। दोनों ओर से स्वीकृति प्राप्त हुई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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