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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
तपस्या में लीन बावली के तन की शोभा-द्रम की हरीतिका और सूर्य की किरणों ने अनुपम सौन्दर्य की सृष्टि की है
रहसि खड़ निश्चल कल्पद्रुम हरित वर्ण तनु शोभ रहा।
लता छदम मुक्की कन्या सवर्ण प्रभू को देख अन्ना । तप के प्रभाव से किमना निवर वातावरण बन गया है
"बड़े प्रेम से हरिणी भी सिंहों के बच्चे पाल रही। व्याघ्रशिशु को दूध पिलाकर गाय अहो फिर चाट रही। जात विरोधी जीवन सभी आपस में मैत्री भाव धरै ।
हाथी सिंह श्रृगाल मर्प नागोश सभी मिलकर विचरे।" योगीश्वर बाहुबली के दर्शन से सो वन का प्रकृति भी प्रफुल्लित हो उठी है। इधर तपस्या में लीन बाहुबली के शरीर पर बेलें चढ़ गईं। पांव के पास वाल्मीकि बनाकर जोवजन्त सुख पा रहे है......
"योग लीन तन पर बिच्छु सादिक क्रीड़ा करते हैं।
लता भुजाओं तक चढ़ती है बहु वनजन्तु विचरते हैं। तपस्या की धूनी में बाहुबली ने अपने कर्मों का क्षय किया। चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अब वे पी रहे हैं स्वात्म सुधारस । शरीर का ध्यान ही कहाँ ?
"शीत तुषार ग्रीष्म वर्षादिक सभी परीषह सहते हैं। महा परीपह विजयी स्वामी महोग्रोग्रतप करते हैं।
इस प्रकार एक वर्ष की तपस्या उन्हें शुक्लध्यान में प्रतिष्ठित करती है। भरत योगीश्वर बाहुबली की आकर विधिवत् पूजन करते हैं और बाहुबली को उसी क्षण केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। तप ने अनुज को भी पूज्य बना दिया। केवली बाहुबली की वंदना करते हैं। देवगण केवल ज्ञान की पूजा करते हैं। यह तप का ही प्रभाव है कि पखंडाधिपति स्वयं पुजारी बना है। अंत में वे कैलाश पर्वत से कर्मक्षय कर अविनाशी मोक्षपद प्राप्त करते हैं।
भ. बाहुबली की विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा श्रवलबेलगोल में आज भी मानो इंगित करती है कि जीवन की अंतिम साधना ही मुक्ति है।
कवयित्री आर्यिकाजी ने इस कथानक के माध्यम से वर्तमान युग को यह संदेश दिया है कि संसार का वैभव शाश्वत नहीं है। धन सम्पत्ति, राज्य य सभी व्यक्ति, समाज, राज्य और देशों के बीच वैमनस्य संघर्ष, उत्पन्न करने वाले तत्त्व हैं। युद्ध की पीठिका ही य भौतिक सम्पत्ति की एषणा है। भाई-भाई के बीच तनाव का मूल हो ये हैं।
दूसरे युद्ध कितने भयानक और विनाशक हो सकते हैं। उनके परिणाम सृष्टि के विनाश के लिए कितने घातक हैं। यह समझाते हुए मानो युद्ध ज्वर से पीड़ित शासकों से कहना चाहती है कि अपने निजी स्वार्थ के लिए निर्दोष मानव का रक्त क्यों बहाते हो? अपनी समस्या स्वयं हल करो। विश्व शांति के लिए इससे अच्छा मार्ग ही क्या है। यदि इस सत्य को आज का युग समझे तो युद्ध और विनाश के भय से बच जाये।
तीसरा संदेश है कि वैभव धन में नहीं, वैराग्य रे है। मुख भोग में नहीं योग में है-त्याग में है। अंतिम सुख मुक्ति है और उसका माध्यम है कर्ममल को क्षय करने के लिए तपाराधना ।
कृति में कवयित्री ने श्रवलबेलगोल पर स्थित भ पाहबली की मूर्ति का बड़ा ही काव्यमयी भाषा में वर्णन किया है। लगता है यह वर्णन भाव नहीं है, अपितु साध्वी के हृदय का भक्ति पूण भावावेग कविता की सरिता बन कर प्रस्फुटित हो उठा है। कुछ पंक्तियां देखें
"पूर्ण चंद्र रात्री में आकर भक्ति भाव से मुदित हुआ। दुग्धाब्धि अमृतमय किरणों से प्रभू का बहु न्हवन किया । राशि-ज्योत्स्न, शुक्ल ध्यान सम शुभ्र दही ले आती है। भक्ति भाव से स्नपन करती रहती तृप्ति न पाती है। प्रकृती देवी निज सुषमा से नित प्रति पूजन करती है।
मधुर हास्यमय सुमन दा कर जन-जन का मन हरती है।" इस मन के दर्शन करक जैन ही नहीं जैनेतर भारतीय व विदेशी सभी गौरव का अनुभव करते हैं। उन्हें शक्ति मिलती है। अरे! मूर्ति भंजक भी
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