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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञाममती अभिवन्दन ग्रन्थ [५१७ यहां नतमस्तक हो जाते हैं। इसका संदेश ही है "युग युग से यह मूर्ति जगत को शुभ संदेश सुनाती है। यदि सुख शांति विभव चाहो सब त्याग करो सिखलाती है। कवयित्री तो दर्शन करके ही प्रेमाश्रु से भीग उठती हैं। उनकी तो भावना है कि वे भी मुक्ति प्राप्त करें। वे चाहती हैं-. "ज्ञानमति' प्रभू दीजिए हरिये तम अज्ञान। पढ़िये भविजन भाव से लहिए पर निर्वाण।" जहाँ तक भाव का संबंध है कृति लघु होने पर भी प्रभावोत्पादक है। ज्ञान-वैराग्य भक्ति का समन्वय हुआ है। मुक्ति का संदेश और भोग पर वैराग्य की विजय को प्रस्थापित किया है। कवयित्री ने अपने भावों की वाटिका के रूप में प्रकृति को आलंबन बनाया यह उनके प्रकृति प्रेम का परिचायक भी है। यही प्रकृति प्रेम उनके जम्बूद्वीप स्थान पर मूर्तरूप ले रहा है। उन्हें प्रकृति से कितना स्नेह है यह तो वहीं जाकर देखा जा सकता है। . कृति की भाषा सरल होने से वह लोक योग्य कृति बनी है। चंद कठिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, पर उनके अर्थ देकर उसे भी सरल बना दिया है। . अंत में इतना ही कि यह कृति मात्र कथा न रहकर,जीवन जीने की कला सिखाते हुए गंतव्य मुक्ति की ओर जाने की प्रेरणा देती है। भक्ति कुसुमावली समीक्षक-डॉ० शेखर चन्द्र जैन, अहमदाबाद भक्ति कुसुमावलि आर्यिका ज्ञानमती माताजी के भक्तिकाव्य की नवीनतम कृति है। संग्रह का प्रारंभ उषा वंदना से किया गया है। जीवन में जब ज्ञान की उषा का प्रकाश फैलने लगता है तभी मिथ्यात्व, कषाय आदि का अंधकार दूर होता है। कवयित्री ने नये काव्य प्रवाह में 'निर्वाणकाण्ड' स्तुति ही प्रस्तुति की है। तीर्थवंदन! हमार पुण्योपार्जन एवं संचित पाप प्रक्षालन का माध्यम है। पूजा, स्तुति, विधि-विधान के आयोजन की भाँति तीर्थ वंदना की महत्ता है। जब मन में भक्ति का भाव और पुण्यकर्म का उदय आता है तभी व्यक्ति में तीर्थयात्रा के शुभ भाव जाग्रत होते हैं। तीर्थ वे स्थान होते हैं जहां से महान् तपस्वी तीर्थंकर, मुनिगण कर्मक्षय करने हेतु तपाराधना में दृढ़ होकर दुर्धर तप तपते-तपते मुक्ति प्राप्त करते हैं। ऐसे तपस्वियों के तप से तपःपूत भूमि का कण-कण पवित्र होता है। अब हम ऐसे तीर्थस्थानों पर जाते हैं तो उस पवित्रता से हमारा मानसिक संबंध जुड़ता है। उन महान् आत्माओं के गुण-जीव का स्मरण हमें उन्हीं के पथानुगामी बनने की प्रेरणा देता है। उतने क्षण हम संसार से विरक्ति का अनुभव करते हैं। हम धन्य हो जाते हैं ऐसी भूमि के स्पर्शन और दर्शन से। हम जिनवरमय होने लगते हैं "उठो भव्य! खिल रही है उषा, तीर्थं वंदना स्तवन करो। आर्त-रौद्र दुर्ध्यान छोड़कर, श्री जिनवर का ध्यान करो। सर्वप्रथम वे २४ तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि कैलाश, चंपापुर, गिरनार, पावापुर व तीर्थराज सम्मेदशिखर को वंदन करती हैं। इन पुण्य भूमियों से अन्य जो भी केवली मुक्ति प्राप्त कर मुक्त बने हैं उन सबको श्रद्धापूर्वक वंदन करती हैं। वे उन सभी निर्वाणभूमियों का उल्लेख कर वहाँ से मोक्षप्राप्तकर्ताओं को अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित करती हैं। और अंत में उन सभी सिद्ध आत्माओं को वंदन करती हैं जिनके नाम अज्ञात हैं "त्रिभुवन के मस्तक पर, सिद्ध शिला पर सिद्ध अनंतानंत । नमो-नमो त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अंत ॥ दूसरी वंदना भक्ति चैत्याष्टक में वे त्रिभुवन के समस्त कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करती हैं। जैनधर्म के क्रियाकलावों में तीर्थवंदना की भांति चैत्यवंदना का भी बड़ा महत्त्व है। चैत्य या मंदिर वे स्थान हैं जहां तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएं निरंतर मानो पवित्रता, मुक्ति का संदेश देती हैं। वे निरंतर आत्मोन्नयन के लिए प्रेरित करती हैं। इस अष्टक में साध्वीजी ने असुर, नाग, वायुसुर, विद्युत, अग्नि भवनवासी आदि में स्थित समस्त लाखों की व स्थान हजहां तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएं निरंतर मानो पवित्रता, मुक्ति का संदेश देती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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