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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६९५ डा. शेखरचन्द्रमाताजी डा. श्रेयांस जैनमाताजी कल्पना इसमें नहीं है। इसी बात को मैंने इन पंक्तियों में दिया है। “पूर्वाचार्याणां शास्त्रमहार्णवात् वचनामृतकणान् उद्धत्योद्धत्य निजनीरसवचनेषु मध्ये मध्ये मिश्रयित्वा कानिचित् वर्णपदवाक्यानि मया योजितानि ।" रही महत्त्व पूर्ण विषयों की बात, ऐसे तो बहुत से विषय हैं। उनमें से एक दो उदाहरण आप सुनेंगे आचार्य श्रीविद्यानंदमहोदय ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक नाम के महाभाष्य में लिखा है कि "निश्चय नय से,अयोगकेवली भगवान् के चरम समय का रत्नत्रय ही मुक्ति का हेतु है।" गाथा ४ की टीका में मैंने इस विषय की अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। आज जो चौथे गुणस्थान में ही मोक्षमार्ग मान रहे हैं उनके लिए आपका क्या अभिप्राय है? प्रवचनसार की २३७ वी गाथा देकर मैंने स्पष्ट किया है, चौथे गुणस्थान में मोक्षमार्ग के दो ही अवयव हैं चारित्र नहीं है। पांचवें गुणस्थान में एक देश चारित्र है अतः यहां से कथंचित् मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है। वास्तव में मोक्षमार्ग तो छठे गुणस्थान सकल चारित्र रूप संयम से प्रारंभ होकर चौदहवें गुणस्थान के अंत तक माना गया है। इस विषय में भी आपने कुछ खुलासा किया है क्या? गाथा टीका के अंत में अधिकांश तात्पर्यार्थ दिया गया है। उसमें असंयम सम्यग्दृष्टि तक के कर्तव्य को दिखलाया गया है। जैसे कि गाथा ५५ के अंत में देखें "तात्पर्यमेतत्-असंयतसम्यग्दृष्टिर्व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग श्रद्धत्ते।... अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार और निश्चय ऐसे दोनों ही मोक्षमार्ग की श्रद्धा करते हैं। देशव्रती श्रावक एकदेश चारित्र का अवलंबन लेकर सकलचारित्र रूप महाव्रतों की इच्छा करते हैं। पुनः पुरुषार्थ के बल से सकल संयम को ग्रहण करके सरागसंयमी मुनि हो जाते हैं। तब वे व्यवहार तपश्चरण, व्यवहार आवश्यक क्रियादि का अनुष्ठान करते हैं। इसी व्यवहार चारित्र के बल से जब निश्चय चारित्र का अवलंबन ले लेते हैं तब निश्चय तपश्चरण, निश्चय आवश्यक आदि रूप परमसमाधि में स्थित होकर अंतमुर्हत काल में मोहनीय कर्म का नाश करके परमवीतरागी होकर सर्वज्ञ हो जाते हैं ऐसा जानकर निश्चय चारित्र को ध्येय बनाकर व्यवहार चारित्र का अवलंबन लेना चाहिए।" इस ग्रंथ में मध्य में ही आपने वीर नि. संवत् ले ली है जिससे भविष्य में इस टीका रचना का समय निश्चित करना कठिन नहीं हो सकता है। हां, गाथा १७६ की टीका में “केवली भगवान् शेष ८५ प्रकृतियों को नष्ट कर सिद्ध हो जाते हैं।... और मुक्त हुये जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करते हैं" यह प्रकरण चल रहा था। इस वर्ष भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस प्रातः निर्वाण लाडू चढ़ने के बाद मैंने प्रशस्त बेला में ये पंक्तियां लिखीं-- "निर्वाणगतस्यास्य भगवतोऽद्य द्विसहस्र-पंचशतदशवर्षाणि अभूवन्। तस्य प्रभोर्निर्वाणकल्याणपूजा कृत्वा देवेन्द्रैः प्रज्वलितदीपमालिकाभिः पावापुरी प्रकाशयुक्ता कृता ।"--- आगमिष्यन्नूतन संवत्सराणि मह्यं सर्वसंघाय सर्वभव्यजनेभ्यश्च मंगलप्रदानि भूयांसुः ।"२ स्त्रियां सर्वथा अर्थात् एकांत से निंद्य ही हों ऐसा नहीं है यह प्रकरण भी आपने गा. १७५ की टीका में सुंदर लिया है। वह क्या है? अरहंत भगवान के श्रीविहार धमोपदेश आदि क्रियायें स्वभाव से ही होती हैं जैसे कि स्वभाव से स्त्रियों में मायाचार । ऐसा प्रकरण आने पर मैंने प्रश्न रखा कि "ननु स्त्रीणां यदि मायाचारः स्वभावेन जायते, तर्हि कथं पूज्यास्ताः आर्यिका पदव्याम्? यदि स्त्रियों में मायाचार स्वभाव से ही होता है तो पुनः वे आर्यिका की पदवी में भी कैसे पूज्य होंगी?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मैंने लिखा है-कि यह कथन बहुलता की अपेक्षा से है न कि सर्वथा, देखो ब्राह्मी, सुंदरी, चंदना आदि आर्यिकायें और मरुदेवी आदि जिनमातायें इन्द्रादि देवों से और भरत, सागर, रामचंद्र आदि महापुरुषों से भी वंदनीय हुई हैं। श्री शुभचंद्राचार्य ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में तीन श्लोक दिये हैं जिसे मैंने वहीं उद्धृत कर दिये हैं यमिभिर्जन्मनिर्विण्णैर्दूषिता यद्यपि स्त्रियः। तथाप्येकांततस्तासां, विद्यते नाद्यसंभवः ((५६)) चंदनामती माताजी चंदनामतीडा. श्रेयांसमाताजी २- नियमसार प्राभृत गा. १७६, पृ. ५१२. १-नियमसार प्राभृत गाथा १८७, पृ. ५४७, २- नियमसार प्राभृत पृ. ५४७ । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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