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________________ ६९४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला नियमसार प्राभृत ग्रन्थ की स्याद्वादचन्द्रिका संस्कृत टीका पर पूज्य माताजी से सम्पादक मंडल की एक वार्ता दिनाँक १३ मई १९९२ लेखक-डा० श्रेयांस जैन, बड़ौत समस्त संपादक- वंदामि, माताजी! माताजी सद्धर्मवृद्धिरस्तु। डा. लालबहादुर शास्त्री- माताजी! आपने लगभग डेढ़ सौ ग्रंथ लिखे हैं उनमें से आपकी अपनी कौन सी ऐसी कृति है जो कि आपको सर्वाधिक प्रिय है? माताजी (मुस्कराकर व कुछ सोचकर) यह तो कहना कठिन सा लग रहा है क्योंकि उच्चतम ग्रंथ अष्टसहस्री, समयासार, नियमसार आदि अनुवादित ग्रंथ और छोटी से छोटी बालविकास आदि पुस्तकें सभी मुझे प्रिय हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है।---फिर भी अपने सभी ग्रंथों में “नियमसार प्राभृत" जिसकी मैंने "स्याद्वादचन्द्रिका" नाम से संस्कृत टीका लिखी है वह मुझे अत्यधिक प्रिय है। डा. लालबहादुर- इस टीका को आपने कब और किस उद्देश्य से लिखा है? माताजी समयसार ग्रंथ की श्री अमृतचन्द्रसूरि विरचित आत्मख्याति टीका और जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति टीका दोनों को लेकर समयसार ग्रंथ पर दोनों टीकाओं का समन्वय करते हुये एक तृतीय संस्कृत टीका लिखने का मेरा अभिप्राय था। पुनः श्रीजयसेनाचार्य की अत्यर्थसरल टीका से सारे संघर्ष के विषयों का समाधान हो ही जाता है ऐसा सोचकर मैंने उन दोनों टीकाओं की हिंदी भाषा में टीका करने का विचार बनाया था। इसी बीच सन् १९७८ में “अक्षयतृतीया" के दिन मैंने नियमसार प्राभृत की संस्कृत टीका लिखना शुरू कर दिया। डा. कस्तूरचंद कासलीवाल- नियमसार ग्रंथ को ही आपने टीका के लिये क्यों चुना? माताजी मुझे यह अत्यधिक प्रिय रहा है मैंने इसकी गाथाओं का पद्यानुवाद भी किया था पुनः इसकी श्री पद्मप्रभमलधारीदेव की संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद भी किया था। इसमें व्यवहार रत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय इन दोनों का ही वर्णन किया गया है। बात यह है कि मूलाचार आदि ग्रंथों में व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन है। समयसार में निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प ज्ञान या ध्यान का वर्णन है। किंतु नियमसार में ४ अध्याय तक व्यवहार रत्नत्रय को बताकर आगे ५ वीं अध्याय से लेकर ११वीं अध्याय तक निश्चय रत्नत्रय स्वरूप उत्कृष्ट अध्यात्म भावना का वर्णन है। आगे रत्नत्रय के फलस्वरूप अहैत,सिद्ध अवस्था का कथन है। इसीलिए मुझे यह ग्रंथ अत्यधिक प्रिय रहा है। प्रारंभ में मंगलाचरण के प्रकरण में मैंने लिखा है भेदाभेदत्रिरत्नाना, व्यक्त्यर्थमचिरान्मयि । सेयं नियमसारस्य, वृत्तिर्विवियते मया ॥५॥ मुझमें यह भेद और अभेद रत्नत्रय शीघ्र ही प्रगट हो इसलिये मेरे द्वारा यह नियमसार ग्रंथ की वृत्ति-टीका रची जा रही है। "अंत में भी मैंने अपने भाव व्यक्त किये हैं- "अस्य ग्रंथस्य रचयितार:---गुरूणां गुरवः श्रीकुंदकुंददेवाः क्व? तेषामेव शास्त्रेभ्यः ईषल्लवमात्र शब्दज्ञानं संप्राप्याल्पज्ञाह? तथापि या मया टीका रचना कृता, सा निजात्मतत्त्वभावनायै एव । अनया निजभावनया जीवनमरण---निंदाप्रशंसादिषु भावितः समभावः स्थैर्य लभेत--- । ईदृग्भावनयैवेयं रचना, न च ख्यातये विद्धत्ताप्रदर्शनार्थ वा।" डा. कस्तूरचंद- इस टीका में आपने किस टीका की पद्धति का अनुसरण किया है? माताजी मैंने श्रीजयसेनाचार्य की टीका की पद्धति के अनुसार ही पातनिका, उत्थानिका आदि बनाई हैं और यथास्थान गाथाओं की संख्या भी दे दी हैं। डा. शेखर चंद्र इसमें आपने निश्चय और व्यवहार का समन्वय तो स्थल-स्थल पर दिखलाया ही है। और कौन-कौन से महत्वपूर्ण विषय लिये है? माताजी इस ग्रंथ में मैंने अनेक ग्रंथों के सारभूत प्रकरणों को देते हुये उन-उन पंक्तियों को उद्धृत कर दिया है। मेरी मनमत कोई भी १- नियमसार प्राभृत ग़ाथा-५५, पृ. १७२, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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