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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
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ने क्षमा याचमा की। धर्म की जय हुई। इस घटना से यही शिक्षा मिलती है कि आपस में सबको मिलकर रहना चाहिए। न मालूम किसके पुण्ययोग से घर में सुख शांति समृद्धि होती है। सुलोचना जयकुमार
महाराजा सोम के पुत्र जयकुमार भरत चक्रवर्ती के प्रधान सेनापति हुए । उनकी धर्म परायणा शील शिरोमणि ध.प. सुलोचना की भक्ति के कारण गंगा नदी के मध्य आया हुआ उपसर्ग दूर हुआ।
रोहिणी व्रत
रोहिणी व्रत की कथा का घटना स्थल भी यही हस्तिनापुर तीर्थ है।
जम्बूद्वीप की रचना
अनेक घटनाओं की श्रृंखला के क्रम में एक और मजबूत कड़ी के रूप में जुड़ गई जम्बूद्वीप की रचना । इस रचना ने विस्मृत हस्तिनापुर को पुनः संसार के स्मृति पटल पर अंकित कर दिया । न केवल भारत के कोने-कोने में अपितु विश्व भर में जम्बूद्वीप रचना के दर्शन की चर्चा रहती है। जैन जगत में ही नहीं, प्रत्युत् वर्तमान दुनिया में पहली बार हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का विशाल खुले मैदान पर भव्य निर्माण हुआ है। जो कि आर्यिका ज्ञानमती माताजी के ज्ञान व उनकी प्रेरणा का प्रतिफल है।
सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् बाहुबली के चरणों में ध्यान करते हुए पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को जिस रचना के दिव्य दर्शन हुए थे, उसे बीस वर्ष के पश्चात् यहाँ हस्तिनापुर में साकार रूप प्राप्त हुआ । वर्तमान में जम्बूद्वीप रचना दर्शन के निमित्त से ही सन् १९७६ से अब तक लाखों जैन जैनेतर दर्शनार्थियों को हस्तिनापुर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रतिदिन आने वाले दर्शनार्थियों में अधिकतम ऐसे होते हैं, जो कि यहाँ पहली बार आने वाले होते हैं।
सभी दर्शनार्थियों के मुख से एक स्वर से यही कहते हुए सुनने में आता है कि हमें तो कल्पना भी नहीं थी कि इतनी आकर्षक जम्बूद्वीप की रचना बनी होगी। हस्तिनापुर आने वाले दर्शकों को जम्बूद्वीप रचना के साथ ही उसकी प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का भी स्वर्णिम अवसर सहज में प्राप्त हो जाता है।
पूज्य माताजी ने जंबूद्वीप रचना की प्रेरणा तो की ही, साहित्य निर्माण के क्षेत्र में भी अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किया। अढ़ाई हजार वर्ष में दिगम्बर जैन समाज में ज्ञानमती माताजी पहली महिला हैं, जिन्होंने ग्रंथों की रचना की। अब से पहले के लिखे जितने भी ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, वे सब पुरुष वर्ग के द्वारा लिखे गये हैं-आचार्यों ने लिखे, मुनियों ने लिखे या पंडितों ने लिखे। किसी श्राविका अथवा आर्यिका द्वारा लिखा एक भी ग्रंथ कहीं के भी ग्रंथ भंडार में देखने में नहीं आया।
पूज्य ज्ञानमती माताजी ने त्याग और संयम को धारण करते हुए एक दो नहीं, डेढ़ सौ छोटे-बड़े ग्रंथों का निर्माण किया । न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, अध्यात्म आदि विविध विषयों के ग्रंथों की टीका आदि की। भक्तिपरक पूजाओं के निर्माण में उल्लेखनीय कार्य किया है। इंद्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विंधान, सर्वतोभद्र विधान, जम्बूद्वीप विधान जैसी अनुपम कृतियों का सृजन किया। सभी वर्ग के व्यक्तियों को दृष्टि में रखकर माताजी ने विभिन्न रुचि के साहित्य की रचनाएं कीं। प्राचीन धार्मिक कथाओं को उपन्यास की शैली में लिखा। अब तक माताजी की एक सौ दस कृतियों का प्रकाशन विभिन्न भाषाओं में दस लाख से अधिक मात्रा में प्रकाशित हुआ है।
पूज्य माताजी की लेखनी अभी भी अविरल गति से चल रही है। आचार्य कुंदकुंद द्विसहस्राब्दि महोत्सव के इस पावन प्रसंग पर अभी-अभी समयसार की आचार्य अमृतचंद्र एवं आचार्य जयसेनकृत टीकाओं का हिन्दी अनुवाद किया, जिसका पूर्वार्ध छपकर जन-जन के हाथों में पहुंच चुका है। ग्रंथों का प्रकाशन कार्य अभी भी सतत् चल रहा है।
महान् दानतीर्थ हस्तिनापुर क्षेत्र का दर्शन महान् पुण्य फल को देने वाला है। यह तीर्थक्षेत्र युगों-युगों तक पृथ्वी तल पर धर्म की वर्षा करता रहे, यही मंगल भावना है।
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