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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला
आर्यिका चर्या-आगम के आलोक में
लेखिका-आर्यिका चंदनामती
इस कर्मयुग के प्रारंभ में जिस प्रकार से तीर्थङ्कर आदिनाथ ने दीक्षा लेकर मुनि परंपरा और मोक्ष परंपरा को प्रारंभ किया, उसी प्रकार उनकी पुत्री ब्राह्मी-सुंदरी ने दीक्षा लेकर आर्यिका परंपरा का शुभारंभ किया है। किंवदंती में ऐसा लोग कह देते हैं कि भगवान् आदिनाथ को अपने जमाइयों के समक्ष मस्तक झुकः ।। पड़ता, इसलिए उनकी कन्याओं ने विवाहबंधन ठुकराकर दीक्षा धारण की थी। किन्तु यह बात कुछ युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होती, न ही इतिहास इस तथ्य को स्वीकार करता है।
तीर्थङ्कर की तो प्रत्येक क्रिया ही अद्वितीय होती है, वे शैशव अवस्था से ही अपने माता-पिता एवं दिगम्बर मुनि को भी नमस्कार नहीं करते हैं, इसमें उनका अहंकार नहीं, बल्कि तीर्थङ्कर प्रकृति का माहात्म्य प्रगट होता है। माता-पिता या दिगम्बर मुनिराज उनकी इस क्रिया का प्रतिरोध भी नहीं करते हैं, प्रत्युत् तीर्थङ्कर के पुण्य की सराहना करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मी सुंदरी कन्याओं ने उत्कट वैराग्य भावना से आर्यिका दीक्षा आदिनाथ के समवसरण में धारण की थी तथा तीन लाख पचास हजार आर्यिकाओं में प्रधान "गणिनी" पद को प्राप्त किया था। "सार्वभौम जैनधर्म प्राणीमात्र का हित करने वाला है" यह सोचकर हृदय में संसार समुद्र से पार होने की भावना को लेकर कोई महिला साधुसंघ में प्रवेश करती है, पुनः उसके वैराग्य भावों में वृद्धि प्रारंभ होती है। चतुर्विध संघ के नायक आचार्य उसे समुचित शिक्षाएं प्रदान कर संघ की प्रमुख आर्यिका या गणिनी के सुपुर्द कर देते हैं, क्योंकि आर्यिकाएं ही महिलाओं की सुरक्षा एवं पोषण कर सकती हैं।
जिस प्रकार से बालक माता के प्रति पूर्ण समर्पित होता है, उसी प्रकार वैराग्यभाव युक्त महिला भी आर्यिका माता के शिष्यत्व को स्वीकार करके स्वयं को उनके प्रति समर्पित कर देती है और उनसे निवेदन करती है कि हे मातः! मैं अपने अनन्त संसार को समाप्त करने हेतु स्त्रीलिंग के छेदन हेतु दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ, अतः आप मुझे हस्तावलंबन देकर मेरी आत्मा का कल्याण कीजिए।
इन औपचारिकताओं के पश्चात् गणिनी आर्यिका उस नववैराग्यशालिनी महिला को कुछ दिन अपने पास रखती हैं और उसके मन की दृढ़ता को, शारीरिक क्षमता को एवं उसमें आर्यिका दीक्षा की योग्यता देखती हैं तथा धार्मिक अध्ययन भी कराती हैं। साधुसंघ में प्रवेश करते ही वह दीक्षा धारण ही कर लेवे, यह कोई आवश्यक नहीं है। सर्वप्रथम तो उसमें साधुओं की वैयावृत्ति करने की एवं आहारदान की भावना होनी चाहिए तथा भिन्न-भिन्न प्रदेशों की, भित्र-भित्र प्रकृति वाली संघस्थ आर्यिकाओं व ब्रह्मचारिणियों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, ताकि संघ में किसी प्रकार की अशांति का वातावरण न उपस्थित होने पाये।
___ संघ के बीच में एवं गणिनी गुर्वानी के अनुशासन में रहकर विद्याभ्यास करने से ब्रह्मचारिणियों के जीवन में अनर्गल क्रियाओं की संभावनाएं प्रायः नहीं रहती हैं। अतः आर्यिकाओं की प्रशस्त परंपरा इन्हीं से चलती है। जब संघ संरक्षण में रहती हुई ये विद्या-शिक्षा में निपुण हो जाती हैं एवं व्यवहारिक ज्ञान आदि का अनुभव भी प्राप्त कर लेती हैं, तभी वे दीक्षा के योग्य माने जाते हैं।
संघ के आचार्य अथवा गणिनी आर्यिका जी जब उस वैराग्यशील महिला का पूर्ण रूप से परीक्षण कर लेती हैं, तब उसकी दीक्षा का मंगल मुहूर्त निकालकर घोषणा करते हैं। औपचारिकता के नाते दीक्षार्थी के कुटुम्बियों से भी आज्ञा मंगानी होती है ताकि दीक्षा जैसा पुनीत कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो सके।
दीक्षार्थी महिला की इच्छानुसार तीर्थयात्राएं भी उसे करवा दी जाती हैं, पुनः जिन धर्म प्रभावना हेतु दीक्षार्थी की शोभा यात्राएं भी सम्पन्न होती हैं। यह कार्य गृहस्थ श्रावकों एवं दीक्षार्थी के परिवार वालों पर निर्भर रहता है।
यह क्रियायें वर्तमान काल में लोक व्यवहार की दृष्टि से और धार्मिक प्रभावना के लक्ष्य से ही की जाती हैं, इससे आत्मकल्याण का कोई विशेष संबंध नहीं है। पूर्वकाल के उदाहरण भी अपने समक्ष है कि वैराग्य होने के बाद पुनः किसी घड़ी की प्रतीक्षा नहीं की जाती, क्योंकि असली वैराग्य ही सर्वोत्तम माना जाता है। आदिपुराण के पृ. ५९२ पर श्री जिनसेन आचार्य ने लिखा है
भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात्।
गणिनी पदमार्यायां सा भेजे पूजितामरैः ॥ हरिवंशपुराण पृष्ठ १८३ पर भी प्रकरण है
ब्राह्मी च सुंदरी चोमे कुमार्यो धैर्य संगते। प्रव्रज्य बहुनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते ॥
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