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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
प्रभू की इस धर्म सभा में हर प्राणी जन्म जात बैर भूलकर परस्पर शांति सौम्यता से बैठकर धर्मश्रवण करता है
"जातविरोधी नकुल-सर्प गज, सिंह हरिण प्राणी गण भी।
गाय वत्स सम परम प्रीति से, सुख अनुभव करते सब ही ॥" प्रभू तुम तो माता के समान वात्सल्य के मूर्ति रूप हो। मैं अनभिज्ञ बालक हूँ यदि मेरी गलती हो जाए तो आपको तो क्षमा ही करना है। पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं होती। इस कहावत का कितना सुन्दर प्रयोग हुआ है।
"सदोष भी मेरी रक्षा करिए चित्तज रागादिक से।
क्योंकि निर्गुणी भी सुत से, नहिं माता निष्ठुर हो जग में।" वर्तमान युग में उत्कृष्ट तप करना कठिन है। शक्तिहीनता के इस काल में प्रभू भक्ति का प्रसाद ही मिल जाय, वही उत्तम है। इस सीमा को जानकर वे अपनी लघुता प्रकट करती हुई भक्ति को ही दृढ़ करती हैं।
"द्वादशांग श्रुत ज्ञान तथा कुछ, तत्त्व नहिं मुझमें। दुषम काल में मुक्तिप्रद, चारित्र नहीं हो सकता है। नहिं उत्तम संहनन शक्ति भी, उग्र उग्र तप करने की।
अतः प्रभो! तव भक्ति एक ही, शिव सुखदायक रहे बनी।" भगवान शांतिनाथ की स्तुति से पूज्यपाद स्वामी दृष्टि सम्पन्न हुए थे, ऐसी ही ज्ञानदृष्टि मुझे भी प्रदान करें। यही शुभ आकांक्षा भक्त कवयित्री की है।
उपसर्ग विजयि श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति एवं श्री पार्श्वनाथजिन स्तुति में भक्ति का वही भाव मुखरित हुआ है। भगवान पार्श्वनाथ की महिमा व मान्यता सर्वाधिक है। भगवान महावीर से पूर्व २३वें तीर्थकर भ. पार्श्वनाथ ऐतिहासिक युगपुरुष हुए। उनकी सर्वाधिक पूजा, मूर्ति विविध नामों से की पूजा-अर्चा हुई है, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं। आज भी भगवान ऋषभ और महावीर की तुलना में पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ अधिक व विविध नामों युक्त प्राप्य है। वे विघ्रहर हैं, चिंतामणि हैं, सहस्रफणा है। उपसर्ग विजयि पार्श्वनाथ उपसर्गजय के प्रेरणास्रोत रहे हैं। इस स्तुति में वे पार्श्वनाथ भगवान के जीवन चरित्र को भी प्रस्तुत करती हैं उन पर हुए घोर उपसर्ग का रौद्ररस में वर्णन करती हैं
"विद्युत चमके दशदिश में, आंधी अंधियारी काल समान । गरजे मेघ भयंकर वायु, वृक्ष उखाड़े शैल समान।"
पर इस आंधी में भी पार्श्वप्रभू तो धीर-वीर-गंभीर तपस्या में रत हैं।
इस सहनशक्ति व दृढ़ता के सामने पद्मावती देवी का आसन भी कंपायमान हो उठा। धरणेन्द्र-पद्यावती ने अपनी भक्ति और शक्ति से इस उपसर्ग का निवारण किया, केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रों द्वारा रचित समवसरण की शोभा का वर्णन कवयित्री ने बड़े ही साहित्यिक ढंग से कियाहै। ऐसा ही वर्णन प्रायः हर तीर्थंकर के समवसरण-वर्णन में है। हाँ! सभी वर्णनों में भाषा, भावों व शल्यवृष्टि अवश्य वैविध्यपूर्ण है। इन वर्णनों में उनका काव्य कौशल निखरा है। भक्त से अधिक कवि जागरूक है
"माणिक रत्न गुरूत्मणि मुक्ता, हीरकमणि वैडूर्यों से। इन्द्राज्ञा से धनपति रचियों, समवसरण गगनांगण में। अति ऊँचे मानस्तंभों से, पुष्पवाटिका सरवर से। परकोटे सालत्रय शोभे, वापी रम्य स्वच्छ जल से।"
"रत्नमणीमय कमलासन पर, चतुरंगुल ऊपर राजें।
तीन छत्र 'त्रिभुवनपति' सूचक, उन प्रभु को हम नित वंदें।" उन प्रभू की प्रभावना देखिये कि सारा हिंसक वातावरण ही बदल गया है
"निर्मल दिश सब स्वच्छ सरोवर, शाली आदिक खेत फलें। प्राणी हिंसा कभी ने होती, षट ऋतु के फल फूल खिलें।"
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