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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४९३ रही है। मनोज्ञ मूर्ति हृदय को भक्ति में आबद्ध कर लेती है। अपने आराध्य का वह निर्मल सौन्दर्य देखकर भक्त भावविभोर होकर गा उठता है। यही भावगीत उसकी स्तुति बन जाते हैं। __चन्द्र प्रभू की ऐसी ही छवि भक्ति के लिए वाचाल बना देती है "गुनिमन समुद्रवर्धन को शशि, मदनजयी मन तमहारी। चपल चित्त गति हरन हेतु, चन्द्रप्रभ स्तुति सुखकारी ॥" ऐसे सौन्दर्य सम्पन्न प्रभु भक्तों की भवाग्नि को शान्त करते हैं "शशि सेवित पद परमशांतियुत, भव्य भवाग्नि शान्त करो। यति मन कमल विकासी शशिसम, धवल वर्ण नमुचन्द्र प्रभो ॥" भक्त कवि की वाणी आराध्य के दर्शन से गद्गद हो उठती है। भव-भव में भटका भक्त अब भव भ्रमण से थक गया है अब तो वह मुक्ति की चाह से ही द्वार पर आया है। समवसरण में विराजमान प्रभू ऐसे शोभित हैं जैसे तारों की सभा में चन्द्र शोभित होते हैं। वे ऐसे चन्द्र हैं जिनकी कांति कभी भी न्यूनाधिक नहीं होती। अपर प्रातिहार्यों के वर्णन द्वारा वे उनके महान् अतिशय का वर्णन करती हैं। इसी संदर्भ में वे जैन दर्शन के ईश्वर, संसार रचना आदि तत्त्वों पर भी प्रकाश डालती हैं। भव्यजनों की यही प्रकृति होती है कि वे सदा लघु बने रहते हैं। यही लघुता उनकी आत्मा की महानता है "राशिसम धवल गुण स्तुति में, तव महर्षि भी असमर्थ रहें। मैं फिर कैसे समर्थ होऊँ, नहिं बुद्धि किंचित् मुझमें ॥" स्वपर भेद के ज्ञाता प्रभू के दर्शन-अर्चन से पूर्ण सौख्य की प्राप्ति होती है। ऐसे प्रभू में जो लीन हो जाये-प्रभूमय बन जाय वह स्वयं अतुल कांति का धारी बन जाता है-ऐसी प्रभू की महिमा है। भक्त तो प्रभू के समान–'तुम सम मैं बनना चाहता है। अपने आराध्य को विविध विशेषणों से 'संबोधन करके भी उसका मन तृप्त नहीं होता- उसके आराध्य तो उसके लिए-"मदनजयी जिनपति! दुरितंजय! करुणाहृद, त्रिभुवन पति" हैं। मोह रूपी सर्प को मूर्च्छित या विष रहित करने वाले प्रभू की आराधना में जैसे साध्वी का भक्त हृदय बंध ही गया है। ___ भावों की यही सरिता अन्य स्तुतियों में भी अबाध रूप से प्रवाहित हुई है। श्री शांतिनाथ जिन स्तुति में उनकी भक्ति का प्रवाह आवेग द्रष्टव्य है। भगवान शांतिनाथ तो विश्वशांति के प्रतीक हैं। उनका आचरण मात्र प्राणी को शांति प्रदान करता है। विश्व-शांति के भाव जागते हैं "जिनकी नाम स्तुति भी हदि में, सकल ताप को शांति करी। अहो मुदित उन शांतिनाथ की, करूं संस्तुति सौख्य करी ॥" वीतराग प्रभू तो शांति करुणा के प्रतीक हैं। शस्त्रों से रहित द्वेष मुक्त हैं। "सकल परिग्रह त्याग दिया, अतएव राग नहिं लेश तुम्हें । आयुध गदा रहित निर्भय हो, अतः द्वेष भी नहीं तुम्हें ॥" वे शांतिनाथ के पूर्व भव के तपस्यारत परिषह सहन करने वाले रूप का स्मरण करते हुए उनकी दृढ़ता का परिचय देती है। तीर्थंकर के जन्म से पूर्व छह माह तक होने वाले रत्नवर्षा आदि सुखमय वातावरण का चित्रण कर यही तो प्रस्तुत करती हैं कि भव्य जीव के अवतरण से पूर्व ही धरती पर सुख की वर्षा होने लगती है। प्राणीमात्र कष्ट से राहत प्राप्त करने लगता है। भगवान शांतिनाथ तो चक्रवर्ती थे, फिर भी उस अटूट-अपार वैभव को त्यागकर मुक्त वधू के कंत बने । षट्खंड विजयी ने अंत में अपनी ही आत्मा पर विजय प्राप्त कर कैवल्य प्राप्त किया। ऐसे प्रभू के चरणों में प्राणीमात्र अशोक बन जाता है "तब संनिध आया जड़ तरु भी, जब अशोक हो जाता है। क्योंकि जगत में कारण के बिन, कार्य नहीं हो पाता है।" समवरण में विराजे अष्ट प्रातिहार्यों से सुशोभित प्रभू की छवि भक्त को हर्षाश्रुमय बना देती है। उसका मन मयूर नाच उठता है "हे प्रभू! तव छत्रत्रय को शुभ, श्वेत लटकती मुक्ताएं। भव्य जनों के नेत्रों से, हर्षाश्रु अमृत बर्षायें।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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