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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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पूज्य माताजी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है । छद्म आधुनिकता के नाम पर किसी भी वर्ग विशेष द्वारा दिगम्बर जैनाचार्य की परम्परा प्राप्त मान्यताओं व सिद्धान्तों में जब कभी परिवर्तन का कुचक्र चलाया गया अथवा मूल जैन संस्कृति पर किसी भी पक्ष द्वारा आघात पहुँचाने की कुचेष्टा की गई तब-तब माताजी ने भी सजग रहकर शास्त्रीय परम्परा के अनुसार प्राचीन जैन संस्कृति की रक्षा करने एवं उसे अक्षुण्ण बनाये रखने में महद् योगदान किया है।
आपकी तेजोमय शक्ति का ही परिणाम है कि अटूट श्रद्धा से स्थापित दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान् महावीर तक की परम्परा को सुरक्षित रखने में अहर्निश शोध की दिशा में अग्रसर है। समय-समय पर शिविर व सेमिनार का आयोजन करके महती धर्मप्रभावना की जा रही है। अपनी ओजस्वी, निर्भीक, वक्तृता द्वारा अमिट छाप डालने में इनकी निपुणता असंदिग्ध है। मानवीय और सामाजिक समस्या सुलझाने की और शास्त्रीय धर्म के स्वरूप को समझाने की अलौकिक शक्ति आप में ही है। आपने अपने आदर्श जीवन से यह प्रमाणित कर दिया है कि नारी की शक्ति चारित्र, ज्ञान और चरमोन्नति में पुरुष से किसी क्षेत्र में कम नहीं है।
आगम के सिद्धान्तों को जन साधारण तक पहुँचाने के लिए तथा आत्मिक शान्ति हेतु आत्म-साधना, स्वाध्याय, लोकोपदेश एवं पठन-पाठन आपके दैनिक कार्यक्रम के अंग हैं। प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत आर्ष ग्रन्थों को आज की भाषा और शैली में सम्पादित कर जन-जन तक पहुँचाना आज के युग की माँग है, पूज्य मातुश्री ने इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए आचार्य परम्परा प्राप्त अनेक प्राचीन ग्रन्थों के सार को नई शैली में प्रतिपादित करके समाज को उपकृत किया है। इसके अतिरिक्त प्राचीन दुरूह ग्रन्थों का वैज्ञानिक एवं विद्वत्तापूर्ण सम्पादन एवं अनुवाद कर जैन वाङ्मय का उद्धार कर जैन साहित्य निर्माताओं के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा है।
राजनैतिक क्षितिज पर उभरते हुए व्यक्तित्व के धनी भी पूज्य मातुश्री की जीवन प्रणाली से प्रभावित होकर सम्पर्क में आते रहे हैं और उन पर पूज्य माताजी के गरिमापूर्ण ज्ञान और संयमपूर्ण जीवन की अमिट छाप पड़ी है। प्राचीन एवं अर्वाचीन विचारों की प्रेरक आर्ष परंपरा की पोषक माताजी की धार्मिक गतिविधियों से भारत की जनता इतनी प्रभावित है कि सन्तों, आर्यिकाओं एवं जैन-दर्शन की बात करते समय माताजी को विस्मृत नहीं कर सकती। आप वास्तव में गहन अन्धकार में डूबे हुए के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं। आपके सम्बन्ध में जितना लिखा जाये अल्प है, सूर्य को दीपक दिखाना है।
परम पूज्या माताजी के चरणों में मेरा शत-शत नमन ।
"सनावद चातुर्मास एक अमिट देन"
-कैलाशचन्द्र चौधरी, सनावद सनावद नगर का दिगम्बर जैन समाज अत्यन्त भाग्यशाली है कि १९६७ में पूज्या गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का सनावद नगर में चातुर्मास हुआ। उस समय माताजी की उम्र चंदनामती माताजी की उम्र के समकक्ष थी। माताजी के चातुर्मास की सबसे बड़ी एवं सबसे महान् उपलब्धि न केवल सनावद नगर के लिए, अपितु सम्पूर्ण दि० जैन समाज के लिए आचार्य वर्द्धमान सागरजी एवं क्षु० मोतीसागरजी के रूप में प्राप्त हुई। इतना ही नहीं, श्री इन्दरचन्दजी चौधरी, विमलचन्द्रजी काला, धरम भाई बडूद, त्रिलोकचन्द्रजी सर्राफ, श्रीचन्द्रजी जैन, विमल भाई बडूद प्रभृति युवाजन आपके द्वारा आरोपित संस्कारों से आज भी संस्कारित हैं। विशेष क्या लिखू मेरे अन्तःकरण में धर्म के प्रति आज जो श्रद्धा का भाव है, वह भी पूज्य माताजी के सानिध्य का ही कारण है। सच्चे सम्यग्दृष्टा की भाँति माताजी का संकल्प दृढ़ है और उसी का परिणाम है कि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना द्वारा सम्पूर्ण विश्व के समक्ष जैन भूगोल को साकार करने में वह सफल हुई। मुझे जो आपके सानिध्य में अनुभव हुए, उन्हें मैं वाणी द्वारा आभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। विनयाञ्जलि के रूप में अपने हृदयोदगार गुरु चरणों में समर्पित कर आनंद-विभोर हो रहा हूँ।
श्रद्धापूर्ण विनयांजलि
-सुरेश जैन आई०ए०एस०, भोपाल विदेश यात्रा से लौटने पर मुझे वर्ष १९८६ में सपरिवार हस्तिनापुर में पू० माताजी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनके दर्शन से मेरी ज्ञान-पिपासा बड़ी सीमा तक पूर्ण हुई एवं मन को आत्मिक शान्ति प्राप्त हुई। क्षणिक भेंट में ही उन्होंने अपने जीवंत आशीर्वाद से मुझे उपकृत किया। तब से मैं उनके द्वारा रचित आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन कर रहा हूँ।
पू० माताजी का ज्ञान एवं त्याग अनुपम एवं अनुकरणीय है। भगवान से प्रार्थना है कि माताजी सदैव स्वस्थ एवं क्रियाशील रहकर शरद पूर्णिमा की ज्योति से राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने भक्तजनों को आलोकित करती रहें।
उनके चरणों में मेरी श्रद्धापूर्ण विनयांजलि अर्पित है।
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